9 October 2009

दिल के अरमां कागजों पे कह गए

बीबी मायके में और शाम की दस्तक. रात के 'खाने' की चिंता. दिल में तरह तरह के ख्याल आने का वक्त. चलिए आप से बाँट लें. शायद आप का भी यही दर्द हो.

वो जब याद आये, बहुत याद आये.
कई दिन से घर का, न भोजन मिला है,
भला कोई कब तक, बटर-ब्रेड खाए,
वो जब याद आये, बहुत याद आये.

मेरी तमन्नाओं की तक़दीर तुम सवांर दो,
हलवा-पूरी-सब्जी और साथ में अचार दो,
साथ में अचार दो.

दोस्त दोस्त ना रहा, प्यार प्यार ना रहा,
हो गया गरीब अब, मै 'मालदार' ना रहा
'मालदार' ना रहा

जिंदगी प्यार की, दो चार घड़ी होती है,
हर घड़ी पास में बीबी जो खड़ी होती है,
जिंदगी प्यार की, दो चार घड़ी होती है.

रस्मे-उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे,
हर तरफ हुस्न है, नज़रों को झुकाएं कैसे,
रस्मे-उल्फत को निभाएं तो निभाएं कैसे.

और आखिर में

हुई शाम उनका ख्याल आ गया,
वही 'रोटियों' का सवाल आ गया,
हुई शाम उनका ख्यायायाल आ गया.

19 July 2009

ईश्वर सब की सुनता है

एक बार जबरजस्त गर्मी और सूखा पड़ा. सारे पेड़, पौधे, नदी, तालाब सूख गए और पूरे इलाके में खाने और पीने के लिए कुछ नहीं बचा. कई दिनों से भूखा और प्यासा एक हिरन इधर उधर भटक रहा था. तभी उसे एक जीर्ण शीर्ण मंदिर दिखाई दिया. छाया की तलाश में वह मंदिर के अंदर चला गया. वहां उसे एक देव प्रतिमा स्थापित दिखाई दिया. उसने प्रतिमा से प्रार्थना किया कि पिछले कई दिनों से उसने कुछ भी खाया-पिया नहीं है और उसे कुछ खाने को मिल जाय. तत्काल प्रतिमा से आवाज आई :
" मंदिर के पीछे काफी हरी घास है और एक छोटे से तालाब में साफ़ पानी भी है. जाओ जी भर के खाओ, पानी पियो और छाया में आराम करो".
हिरन ने ईश्वर को धन्यवाद दिया और मंदिर के पिछवाड़े की ओर लपका.
थोडी ही देर बाद एक भूखा और प्यासा शेर मंदिर में आ पहुंचा. उसने भी ईश्वर से वही प्रार्थना की. प्रतिमा से पुनः आवाज आई :
" मंदिर के पीछे एक हिरन है और एक छोटे से तालाब में साफ़ पानी भी है. जाओ जी भर के खाओ, पानी पियो और छाया में आराम करो".
शेर ने भी ईश्वर को धन्यवाद दिया और मंदिर के पिछवाड़े की ओर बढ़ लिया.

5 May 2009

मेम साब

ऑरगन और वोइलिन के मधुर ओर्केस्ट्रा की चिर परिचित धुन उसके कानों में अचानक गूँज उठी. अपने ऊपर बिखरे ट्यूलिप और गुलाब की हजारों पंखुडियों को परे हटा कर जैसे - तैसे उन्ही पंखुडियों के दलदल में धंसते हुए वह उस धुन के स्रोत की ओर लपकी. पैरों के नीचे फूलों के दलदल और ऊपर लिपटे रेशमी लिबाश ने उसको जैसे जकड़ लिया था. अपने आप को बेवश पाकर उसने ध्वनि को पकड़ने की चेष्टा में अपना हाथ बढ़ाया. उसके हाथ का जैसे स्पर्श पाकर ध्वनि शांत हो गयी. वह घबरा कर उठ बैठी. आज फिर उसने कुछ कुछ रोज जैसा ही सपना देखा था. वही फूलों से लदी मखमली घाटी, चारो ओर फैली सुनहली चांदनी, हवा में मिश्रित आदिम देह की मादक खुशबू, दूर से आमंत्रित करती मानव आकृतियाँ और आज ए मधुर संगीत की स्वरलहरी. हर बार वह अपने आप को उन्ही फूलों के दलदल और रेशम की उलझी हुई लिबास में जकड़ी हुई पाती जिसमे से निकल पाने में वह अभी तक सफल नहीं हो पायी थी.
कुछ पल के सन्नाटे के बाद फिर वही धुन गूँज उठी. इस बार यह साइड टेबल पर रखे कीमती मोबाइल से आ रही थी. बिना स्क्रीन देखे वह समझ गयी कि यह आनंद का फ़ोन है. इतनी रात को और कौन फोन करेगा. जरूर उसका कोटेशन एक्सेप्ट हो गया होगा और इसी ख़ुशी को बांटने के लिए उसने फोन किया होगा.
इस आर्डर को पाने के लिए तीन महीनो में वह USA का पांच चक्कर लगा चुका था. कंपनी का प्रोफाइल और प्रेजेंटेशन तैयार करने के लिए उसने रात दिन एक कर दिया था. पिछले दस दिनों से तो अपनी सेक्रेटरी और मैनेजर के साथ वॉशिंगटन में ही जमा था. इस साल का यह चौथा सप्लाई आर्डर होगा लेकिन इसकी बात ही कुछ और थी. माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनी से इतना बड़ा आर्डर मिलना आसान नहीं था. उसकी अपनी कंपनी है भी कितनी पुरानी, अभी आठ साल भी नहीं हुए उसको अपना काम शुरू किये हुए. देखते देखते उसका टर्न ओवर पिछले साल 100 करोड़ पार कर गया. कालेज के दिनों से ही उसमे कुछ बड़ा करने की अदम्य इच्छाशक्ति थी. उसकी सोच और साहस देख कर ही वह उसके करीब आई थी. खुद उसके अंदर भी तो दुनिया की सारी खुशियाँ भोग लेने की चाह कूट कूट कर भरी हुई थी. आज आनंद की बदौलत दुनिया के सारे भौतिक सुख गाड़ी, बंगला, नौकर-चाकर, महगे जेवर गहने, पैसे और पता नहीं क्या क्या उसके क़दमों में बिखरे पड़े थे.
मोबाइल की रिंग टोन तब तक शांत हो चुकी थी. उसने समय देखा तो रात के तीन बजने को थे. वह सुबह भी तो फोन कर के बता सकता था, आधी रात को जगाना जरूरी था क्या? कुछ तो बेवक्त नींद टूटने की झुझलाहट और कुछ रोज की तरह आज भी सपने में खुद की बेवशी ने उसका मन खिन्न कर दिया था. उसने मोबाइल स्विच ऑफ किया और इम्पोर्टेड रेशमी लिहाफ में खुद को समेट लिया.
दरवाजे पर ठकठक की आवाज ने एक बार फिर उसे नीद से झकझोरा. उठ कर दरवाजा खोला तो उसकी कामवाली नीरू चाय की केतली लिए खड़ी थी. नीरू को चाय बनाने को बोल कर आँख मलते वह बाथरूम में घुस गयी. लौटी तो झुक कर चाय बना रहे नीरू के कुरते पर उसकी नजर पड़ी. अरे! तुमने आज फिर कुरता उलटा पहन रखा है ?
सॉरी मेम साब ! गलती से उलटा पहन लिया. अभी ठीक करके आती हूँ.
फिर "मेम साब" बोली ? कितनी बार कहा है कि गवांरों वाली भाषा मेरे घर नहीं चलेगी.
सॉरी "मैडम" ! 'घबराहट में मेम साब बोल दिया'. और तेजी से वह कमरे से बाहर निकल गयी.
कितनी गवांर औरत है, कपड़े तक पहनने का शऊर नहीं है. आज दूसरी बार देखा है इसको उलटे कपड़े में. जबसे इसका आदमी कमाने के लिए कहीं बाहर गया है जाने कहाँ खोयी रहती है, कोई काम ठीक से नहीं करती. इन गरीबों की किश्मत इसी लिए ख़राब रहती है.
अचानक उसका ध्यान आनंद के रात वाले फोन की ओर गया. उसने कॉल बैक करने के लिए जैसे अपना मोबाइल स्विच ऑन किया बीप बीप के साथ एक SMS स्क्रीन पर प्रकट हुआ. यह आनंद का SMS था जो शायद उसने रात में ही किया होगा. उसने झट से SMS पढना शुरू किया. एक लाइन का SMS पढ़ते ही उसका दिल धक् से बैठ सा गया. उसे माइक्रोसॉफ्ट से आर्डर नहीं मिल पाया था. उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह आनंद से क्या बात करे. कितना मेहनत किया था उसने इसके लिए. पिछले कई महीनों से वह खाना पीना और यहाँ तक कि उसे भी भूल चुका था. उसने सोचा कि अगर यह आर्डर मिल जाता तो आनंद की व्यस्तता और बढ़ जाती.पिछले कई महीनो से उसके साथ अन्तरंग क्षणों की बात तो दूर उसके शरीर का स्पर्श पाने को वह तरस गयी थी. रोज रात बिस्तर पर पसरे उसके निढाल शरीर को देखकर उसे अपने ऊपर कहीं ज्यादा दया आती थी. उसने सोचा कि चलो अच्छा हुआ चैन से साथ कुछ दिन साथ तो बिताने को मिलेगा. उसने कपबोर्ड से जोगिंग ड्रेस निकाली और ग्राउंड फ्लोर पर बने जिम की ओर चल पड़ी.
आनंद को USA से आये एक महीने से ऊपर हो चला है. अब वह पहले से भी अधिक व्यस्त हो गया है. उसकी कम्पनी का टर्न ओवर थोड़ा सा कम होने के वजह से सप्लाई ऑर्डर नहीं मिल पाया था. उसने अब रात दिन एक करके ताइवान वाले प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया है. इस साल अपना टर्न ओवर डेढ़ गुना तक बढ़ाने का उसने मुश्किल लक्ष्य बना लिया है. महीने के अधिकतर दिन वह टूर पर ही रहता है. उसके पास अपना समय काटने का कोई विकल्प नहीं है. कई बार उसने उसे समझाने की कोशिश किया कि क्या जरूरत है हमें इतने बड़े लक्ष्य की . कुछ समय हमें खुद के लिए नहीं चाहिए क्या? हम अपनी खुशियों के लिए कब जियेंगे? आखिर कौन भोगेगा इतना सारा वैभव ? लेकिन हर बार उसके तर्क बेकार जाते, आनंद के लिए जीवन की खुशियों का मतलब सिर्फ नए लक्ष्य बनाना और उसे पाना रह गया था.
आज फिर उसने अपने आप को नरम पंखुडियों के दलदल में धंसा पाया. मद्धिम चांदनी रात में चारो ओर मडरातीं वही मानव आकृतियाँ, उसे अपनी ओर आमंत्रित करते हुए, लेकिन पैरों के नीचे दलदल की वजह से उसकी पहुँच से दूर . उनके मांसल शरीर से आती आदिम गंध उसे मदहोश किये जा रही हैं. उसने ठान लिया है कि आज उनमे से किसी एक का हाथ पकड़ कर दलदल से ऊपर आकर रहेगी. उसने हाथ बढा कर एक आकृति को पकड़ा और अपने सीने की ओर कस कर खींच लिया.
क्या कर रही हो ? आनंद की तेज आवाज से चौंक कर वह सहसा जग गयी. उसने आनंद को अपने बाजुओं में जकडा हुआ पाया जो उससे आजाद होने की भरसक कोशिश कर रहा था. उसकी गर्म साँसें आनंद के चेहरे को झुलसा रही थीं. उसने अपनी जकड़ ढीली करते हुए आनंद की आँखों में अपनी आँखें गहरे तक उतार दीं. नाईट लैंप की धीमी रौशनी में भी आनंद को उसके आँखों की भाषा पढने में कठिनाई नहीं हुई.
उसे परे धकेलते हुए वह झल्ला कर बोला, सोने दो मुझे, कल सुबह की फ्लाईट पकडनी है, क्लाइंट के साथ बहुत जरूरी मीटिंग है मेरी.
कांपती सी आवाज में उसने पूछा, क्या इन मीटिंगों और फ्लाइटों के बीच में मेरे लिए तुम्हारी कुछ जिम्मेदारी नहीं है. क्या शरीर को सिर्फ इन मीटिंगों, फ्लाइटों और टर्न ओवरों की जरूरत है?
देखो बहस मत करो, मै ए सब कुछ तुम्हारे लिए ही तो कर रहा हूँ. एक बार ठीक से बिजिनेस सेटल हो जाने दो. सारी जिंदगी पड़ी है बाकी सब के लिए. सोने दो अब मुझे . ओके ! गुड नाईट .
उसने आज अपने आपको नरम गद्दे के दलदल में धंसा पाया. एसी की ठंडी हवा में भी पसीने से लथपथ. अपने आप को इस घुटन से आजाद करके वह कमरे से बाहर निकल आई. अनायास उसके कदम ऊपर जाती सीढ़ियों की तरफ बढ़ चले. शायद ताजी हवा की चाह में शरीर की नैशर्गिक प्रतिक्रिया वश .
उसे टेरेस पर गए वर्षों हो गए थे बल्कि उसे कभी ऊपर जाने की जरूरत ही नहीं महसूस हुई. टेरेस पर ड्राइवर और माली के लिए एक कमरा था. नीरू किचेन या स्टोर में ही सोती थी.
उसने अपरिचित से छत की गर्म, ठोस सतह पर कदम रखा. उसे दूर कोने में कुछ साए आपस में लिपटे नजर आये. उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ. वह धीमे धीमे उन सायों की तरफ बढ़ी. पास जाकर देखा तो साए कही गायब हो चुके थे. वह सीढियों की तरफ वापस लौट आई. अचानक उसे दरवाजे पर नीरू दिखाई पड़ी.उसने उसके घबराए चेहरे और पसीने में लथपथ शरीर पर नजर डाली . सीढियों से आती झीनी रौशनी में उसने देखा कि नीरू ने आज फिर अपना कुरता उलटा पहना हुआ था.
कांपती आवाज में वह फुसफुसाई : मेम साब! गलती से आज फिर कुरता उलटा पहन लिया और तेज कदमो से वह सीढियों से नीचे उतर गयी.
रेलिंग के पास खड़े होकर उसने चारो ओर नजर दौडाई. छत पर मद्धिम चांदनी फैली हुई थी कुछ कुछ उसके सपनों जैसी. उसे हवा में मिश्रित आदिम देह की मादक खुशबू और अपने इर्दगिर्द हजारों मानव आकृतियाँ महसूस होने लगी. उसने उन सायों को छूने के लिए हाथ बढाया. आज उसके पैरों के नीचे दलदल नहीं बल्कि ठोस सतह थी. आज सारे साए उसकी पहुँच में थे.
वह बुदबुदाई ! नीरू , तुमने उलटा कुरता पहन कर कोई गलती नहीं की.

12 April 2009

क्लब 99

बहुत पहले की बात है एक अमीर और शक्तिशाली राजा था. बहुत सारे राजवाडे और जमींदार उसके अधीन हुआ करते थे. ढेर सारे कर एवं राजस्व की वसूली से उसका खजाना भरा रहता था. इतनी खुशियों के वावजूद राजा हमेशा उदास और परेशान रहता था. सारे दरबारियों एवं मंत्रियों ने राजा की परेशानी की बजह जानने की बहुत कोशिश की लेकिन किसी को माजरा समझ में नहीं आया. एक दिन राजा अपने एक विद्वान् मंत्री के साथ भ्रमण कर रहा था तभी उसकी नजर फटेहाल कपडे पहने एक आदमी पर गयी. वह आदमी उस इलाके का सफाई वाला था और बड़ी मस्ती में गाते हुए सड़क पर झाडू लगा रहा था. राजा उसे देख कर रुक गया. उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अपने मंत्री से पूछा कि मै इतना अमीर राजा होकर भी हमेशा दुखी रहता हूँ और यह फटेहाल आदमी इतना खुश कैसे हो सकता है. इसकी ख़ुशी का राज क्या है ?
मंत्री बोला : राजन इसकी ख़ुशी का राज यह है कि यह अभी क्लब 99 में शामिल नहीं हुआ है. जिस दिन यह क्लब 99 में शामिल हो गया इसकी साड़ी खुशियाँ उसी दिन ख़त्म हो जाएँगी. राजा को विश्वास नहीं हुआ. वह मंत्री से बोला कि मुझे यह समझाओ कि क्लब 99 क्या है और साथ ही यह आदेश दिया कि इस झाडू वाले को भी क्लब 99 में शामिल करो ताकि वह मंत्री के बात की सत्यता का भी पता लगा सके.
आधी रात को मंत्री राजा को साथ लेकर जमादार के झोपड़ी पर पहुंचा और उसके दरवाजे के आगे एक पोटली में सोने की 99 अशर्फियाँ रख कर चुपचाप वहां से वापस आ गया. मंत्री रास्ते में राजा से बोला कि राजन अब यह जमादार भी क्लब 99 में शामिल हो गया है. आज से इसकी सारी खुशियाँ और चैन ख़त्म और अब यह भी आपकी तरह दुखी और परेशान रहा करेगा.
सुबह जमादार ने जैसे अपना फाटक खोला उसे सामने एक पोटली दिखाई दी. पहले तो उसे लगा कि कोई आदमी अपनी पोटली भूल से यहीं छोड़ गया होगा और वह उसका इंतजार करने लगा. काफी देर तक जब उसे लेने कोई नहीं आया तो उत्सुकता वस उसने पोटली खोली. पोटली में सोने के सिक्के देख कर वह दंग रह गया. उसने चुपचाप पोटली उठाई और अन्दर जाकर अपनी पत्नी को सारा माज़रा बताया. दोनों ने किवाड़ बंद करके अशर्फियाँ गिननी शुरू कीं. पोटली में 99 अशर्फियाँ देखकर उसके आश्चर्य की सीमा न रही. उन्हें अशर्फियों की 99 की विशेष संख्या पर बड़ी हैरानी हुई. उन्होंने उन अशर्फियों को चुपचाप छुपा दिया और अपने काम में लग गए.
जमादार अब परेशान रहने लगा. उसे हमेशा चिंता लगी रहती थी कि कहीं उन अशर्फियों का असली मालिक आ न जाय और उसे छीन कर वापस ले जाय. या फिर कहीं चोर ही न उन्हें चुरा लें. खैर कुछ दिन शांति से गुजर गया तो उसके साँस में साँस आई. लेकिन अब वह अशर्फियों की 99 की संख्या से दुखी हो गया. उसने सोचा कि 99 अशर्फियों का क्या मतलब है, कम से कम सौ हों तब तो कोई बात हो. उसने एक और अशर्फी जोड़ने के चक्कर में रात दिन एक कर दिया. रात दिन के मेहनत से उसके पास 99 से 199 और फिर 299...999 आदि अशर्फियाँ आती गयीं लेकिन हर बार एक और अशर्फी के चक्कर में वह नए लक्ष्य बनाता गया. उसके चेहरे से अब वह पहले वाली ख़ुशी हमेशा के लिए गायब हो चुकी थी.
कुछ दिनों बाद मंत्री राजा को लेकर फिर उधर से गुजरा. राजा की नजर जमादार पर पड़ी तो वह हैरान रह गया. उसे ख़ुशी में गाते जमादार की जगह एक चिंतित, कमजोर और परेशान आदमी नजर आया. उसने मंत्री से इस बदलाव का कारण पूछा. मंत्री ने जबाब दिया, हुजुर यह क्लब 99 का कमाल है. जब तक इसके पास कुछ नहीं था और यह 99 के फेर में नहीं पड़ा था तब तक इसको कोई गम नहीं था, आज इसके पास ढेरों अशर्फियाँ हैं लेकिन कोई ख़ुशी नहीं.
राजा को अपनी उदासी का कारण भी अब समझ में आने लगा था.

विनोद कुमार श्रीवास्तव

10 April 2009

लकडियाँ

स्कूल का बस्ता पीठ से उतार कर उसने अपने सीने से चिपकाया और लम्बे कदमो के साथ घर की ओर लपका . तेज़ गड़गडाहट के साथ बारिस के बूंदों की टिप टिप शुरू हो चुकी थी. जुलाई महीने का दूसरा सप्ताह था लेकिन बादल पिछले दो पखवाड़े से लुकाछिपी खेल रहे थे. मानसून की असली आहट अब सुनाई पड़ रही थी. पिछले कई दिनों से बादलों ने आसमान में घनी चादर तान रखी थी लेकिन बारिस नदारद थी. इस इलाके में मानसून बड़ी जालिम शक्ल दिखाती है. या तो इतना लम्बा सूखा पड़ता है कि धरती चटक जाय या इतनी ज्यादा बारिस होती है कि खेत के खेत बह जाय. आजकल स्कूल से निकलते वक्त वह अपनी नयी किताबों और कापियों को पोलिथीन में लपेट कर ही बस्ते में रखता था, क्या पता रास्ते में ही बारिस शुरू हो ले. इस साल भी शासन की ओर से उसको मुफ्त किताबें और कापियां स्कूल खुलते ही मिल गयी थी. उसके माँ बाप की हैसियत तो दो चार रूपये की फीस भरने की भी नहीं थी वे इतनी महँगी किताबें कहाँ खरीद पाते. उसका बीमार बाप कभी का स्कूल छुड़वा चुका होता लेकिन माँ के अड़ जाने के वजह से ही वह अभी तक पढ़ रहा था. कक्षा छः और सात दोनों ही में उसने सबसे ज्यादा नंबर पाए थे. हेड मास्टर साहेब ने बोला था कि अगर वह आठवीं में भी अव्वल रहा तो अगले चार सालों तक उसका फीस माफ़ रहेगा और हर महीने कुछ वजीफा भी मिलेगा. उसने ठान रखा था कि इस साल भी सबसे ज्यादा नंबर ला कर ही रहेगा. फिलहाल तो वह अपने किताबों की जागीर को सीने से चिपटाए घर की ओर भागा जा रहा था. पानी में लथपथ, घर पहुचते पहुचते वह बुरी तरह हांफ रहा था लेकिन उसके चेहरे पर एक संतोष का भाव था, अपने बस्ते को भीगने से जो बचा लिया था.
आज लगातार पाँचवे दिन भी वह स्कूल नहीं जा पाया. इतनी जबरदस्त बारिस उसने कभी नहीं देखी थी. इन पांच दिनों में पल भर के लिए भी बारिस रुकी नहीं थी. चारो ओर पानी ही पानी था. गाँव के कुओं का पानी ऊपर तक आ गया था. घर में आटा चावल तो था लेकिन उनको पकाने के लिए सूखी लकडियाँ कहाँ से आये? उसकी माँ के पाथे उपले सिल कर बिखर गए थे. दो चार टहनियां घर में पड़ी थी उन्ही पर केरोसिन उडेल उडेल कर किसी तरह दो तीन दिन रोटियां सिकी थीं. पिछले दो दिनों से उसका परिवार सत्तू खाकर पेट भर रहा था. वह तो किसी तरह सत्तू हलक से नीचे उतार ले रहा था लेकिन उसके सात साल और तीन साल के छोटे भाई बहनों से सत्तू नहीं खाया जा रहा था. भाई ने आज रो रो कर बुरा हाल कर लिया था जिसपर बापू ने उसकी पिटाई भी कर दी थी. माँ से देखा नहीं गया तो वह लाला के घर से थोडा बासी चावल मांग कर लायी थी. दोनों भाई बहन टूट पड़े थे उसपर . छोटी फिर भी भूखी रह गयी थी. आज रात के खाने का क्या होगा?
पिटने के बाद से ही भाई सत्तू देखकर रोया नहीं है लेकिन अब तो बापू से भी सत्तू नहीं खाया जा रहा है. बीमारी में खाना छूटना ठीक नहीं है. बहन भी सुस्त पड़ी सो रही है. दिया जलाने के लिए जरा सा तेल बचा है.
हे भगवान ! बहुत हो लिया, बंद करो ना बारिस अब !
सुनो ! छप्पर में से थोडा सरपत ( घास ) और एकाध बांस खीच लो. एक वक्त की रोटी सिक जायेगी, बारिस रुकने पर फिर छत ठीक कर लेंगे. अँधेरे कोने में से आती बापू की आवाज पर माँ चौंकी.
क्या कह रहे हो? हर जगह से पानी रिस रहा है. बांस भी गल कर नरम हुआ पड़ा है. एकाध बांस निकलते ही कहीं पूरा छप्पर नीचे ना आ पड़े. माँ बोली.
"देखो बहुत भूख लगी है. सत्तू देख कर अब उलटी आ रही है. कहीं से करो लकडी की व्यवस्था. कुछ नहीं होगा छप्पर को, निकाल लो उसमे से एक बांस".
चटाई पर लेटे लेटे उसने देखा कि माँ उठी और छप्पर के एक कोने से बांस खीचने का यत्न करने लगी है.
बिजली की कर्कश गड़गडाहट के साथ तेज़ चमक उठी . छणिक रौशनी में उसे फूस की छत में से आसमान के कई टुकडे झांकते हुए नजर आए. पिछली कई रातों से आसमान के इन टुकड़ों को देख देख कर उसे उनकी शक्लें याद हो चुकी हैं . आज उसे ए टुकड़े कुछ ज्यादा ही बड़े और भयानक दिखाई दे रहे हैं. 'अजीबो गरीब शक्लों वाले' आसमान के भयानक टुकड़े ! सारे के सारे उसे और उसके परिवार की ओर लपकते हुए ! उसे लगा कि सारा छप्पर गिरने वाला है. वह घबरा कर उठ बैठा .
माँ ! रुको ! मत निकालो उसे ! मै देता हूँ तुम्हे रोटी बनाने के लिए कुछ. वह अपने बस्ते तक गया और दो तीन किताबें निकाल कर माँ के हाथ में रख दिया. माँ इससे बड़ी अच्छी रोटिया सिकेंगी. लो जला लो इन्हें.
बापू , छोटा भाई और बहन, सब उठ कर बैठ गए. उन सब के आँखों में आसमान से भी ज्यादा चमक दिखाई दे रही थी.

विनोद कुमार श्रीवास्तव

1 April 2009

इ आस्करवा का है ?

ए बाबू , इ आस्करवा का चीज है ?
आजकल बड़ा शोर मचा हुआ है कि आस्करवा मिल गया, आस्करवा मिल गया.
इ कहीं ''बिन लादेन'' तो नाही है जो अपनी पुलिस ने पकड़ ली. अइसे शोर हुआ था सन सत्तर में, जब डाकू गब्बर सिंह को ठाकुर ने पकडा था .
अरे नाही चाचा ! इ तो एक इनाम है जो अमेरिका वाले देत हैं अंग्रेजी फिलिम को. पहली बार अपने यहाँ के फिलिम को मिला है ना, इसीलिए इतना शोर है. "जय हो - जय हो" गाना है ना, उसी के वजह से मिला है . बड़ा धाँसू गाना है चाचा !
ला ला ला ला ला ला ला ला ला ला हो तलईया, जय हो - जय हो .
अरे बबुआ ! इ तू का गावत हो ? जय हो - जय हो के अलावा कुछ समझ में आ रहा है ?
अरे चाचा ! हमको भी पता नहीं कि ला ला ... ला ला का मतलब का है ? कौन गाना समझने की जरूरत है , अरे जब अमेरिका वाले बोल रहे हैं कि गाना बढ़िया है तो बढ़िया ही होगा. उनको अपनी लता मंगेशकर का गाना आज तक नहीं पसंद आया और इ वाला पसंद आ गया तो जरूर कोई बड़ी बात होगी इस गाने में . तुम ठहरे अनपढ़ आदमी इ सब गीत संगीत की बात नहीं समझोगे.
ला ला ला ला ला ला ला ला ला ला हो तलईया, जय हो - जय हो .
ला ला ला ला ला ला ला ला ला ला हो तलईया, जय हो - जय हो .
अरे हाँ चाचा ! फिलिम के कहानी भी बहुत धाँसू है . झोपड़ पट्टी के एक अनपढ़ लड़के को एमए - बीए पास से भी तेज़ दिखाया है इसमें. रातोरात करोड़पति बना दिया उसको. कुछ भी हो, इ अंग्रेजी फिलिम वालों का आइडिया जोरदार होत है. इसीलिए अंग्रेजी फिलिम किसी को समझ में आवे या ना आवे, यहाँ सब शो हॉउस फुल जात है .
अरे बचवा ! तबसे तूं अंग्रेजी फिलिम के बड़ाई किये जात हो, अपने यहाँ के फिलिम में कम आइडिया होत है ? इन को कोई इनाम काहें नाहीं मिलत है ? तनिक यहाँ के भी दो चार फिलिम के कहानी सुनो ना .
एक फिलिम में 'मिथुनवा' के दायें हाथ में पुलिस गोली मारत है और 'अमिता-बच्चन' जब उठा के उसको घर ले जात हैं तो उसके बाएं हाथ से गोली निकालत हैं. थोडी देर बाद उसके दायें हाथ में पट्टी दिखत है . एक फिलिम में जुड़वाँ भाई रहे, एक को मारो तो चोट दूसरे को लागत रहे . 'शारूख' के एक फिलिम में .......
अरे चाचा ! अब चुप हो जा. इन फिल्मन के भी खूब इनाम मिलत है अपने यहाँ ! 'फिलिम फेयरवा' के नाम नाहीं सुने हो का?


25 February 2009

क़र्ज़

"Co-applicant" के स्थान पर साइन करने के लिए पत्नी के हाथ में फार्म और पेन बढ़ाते हुए उसकी आंखों में आशा की चमक साफ दिख रही थी। आखिरकार पत्नी को Co-applicant मानते हुए बैंक उसके लोन की रकम बढ़ाने पर राजी हो गया था. पिछले दो सप्ताह से बैंक के अफसरों को अपनी re-payment की हैसियत समझाने में उसके पसीने छूट गए थे. अगर कोई 'न मानने' पर उतर आये तो उसे convince करना कितना मुश्किल होता है. आखिरकार एक और गारंटर की व्यवस्था पर उसकी पत्नी की प्राइवेट नौकरी की अपेक्षाकृत छोटी सी आय को स्वीकार करते हुए बैंक सात लाख का लोन देने को राजी हुआ था.
" ड्राइंग रूम में लाईट ब्लू और अपने बेड रूम में लाईट पिंक ठीक रहेगा ना ? दूसरे बेड रूम में क्रीम कलर कराना है. तुम्हे भी तो लाईट कलर ही पसंद है "
पत्नी को निरपेक्ष और निरुत्साहित पाकर उसने विषय बदला. "तुम्हारे भैया की रजिस्ट्री आज भी आई कि नहीं ? परसों फोन आया था तो कह रहे थे कि ड्राफ्ट भेजे हुए चार दिन हो गए. डीलर अडवांस के लिए दो बार फोन कर चुका है. बोल रहा था कि एक और "पार्टी" तुंरत पेमेंट के लिए तैयार है. कहीं यह फ्लैट हाथ से निकल न जाय".
"क्या अभी ही फ्लैट लेना ज़रूरी है ? जब अपने पास पूरे पैसे नहीं हैं तो इतना सारा क़र्ज़ लेकर फ्लैट खरीदने की क्या ज़रुरत है ? तुम्हारे किसी भी मित्र ने अभी तक अपना मकान नहीं लिया, सभी सरकारी क्वार्टर में ही रह रहे हैं. सिर्फ तुम्हे ही अपने मकान में जाने की पड़ी है . अच्छा भला दिल्ली के सेंटर में रह रहे हैं अब इतनी दूर रोहिणी जा कर रहेंगे". पत्नी ने बजाय जबाब देने के, एक साथ कई प्रश्न दागे.
" अरे भाई ! अपना फ्लैट लेने में गलत क्या है ? इतनी मुश्किल से तो लोन पास हुआ है और जब रहना दिल्ली में ही है तो अपने घर में क्यों न रहे ? जितना HRA कट रहा है उतना ही और मिला कर EMI देना है. आखिर अपना खुद का घर खरीद रहे हैं, इसमें बुराई क्या है"?
" बुराई अपना घर खरीदने में नहीं बल्कि 'सात लाख' के बैंक लोन में है. मैंने इतना बड़ा क़र्ज़ लेते न तो कभी किसी को देखा और ना ही सुना है. दो - चार साल तक हो तो भी चल जाय, यहाँ तो पूरे बीस साल तक किश्तें भरते रहना पड़ेगा. सब दिन एक जैसे नहीं होते, बीस साल में पता नहीं क्या क्या खर्च आ पड़े. इतने बड़े कर्जे के बारे में सोच कर ही मेरा दिल बैठा जा रहा है, मै इस सरकारी मकान में ही खुश हूँ ". पत्नी ने रूआंसे होते हुए लगभग अपना फैसला सुना डाला.
" देखो तुम्हे मेरे ऊपर भरोसा नहीं है क्या? मैंने भी सब ऊंच-नीच सोच कर ही फैसला लिया है. अब जमाना पहले जैसा नहीं है, रिस्क उठा कर काम करने वाले आजकल ज्यादा सफल हैं. और अगर बहुत बुरा वक़्त आया तो यही फ्लैट re-sell करके क़र्ज़ चुका देंगे. चलो साइन करो आज ही फॉर्म जमा करना है ". उसने अपना आखिरी और असरदार तर्क पेश किया.
पत्नी बेमन से फॉर्म पर साइन करते हुए बोली, तुमने अभी तक क़र्ज़ का बोझ महसूस नहीं किया है ना इसीलिए इतने आत्मविश्वास में हो. अगर कभी महसूस किया होता तो क़र्ज़ लेने की ना सोचते. लो खरीदो अपना खुद का फ्लैट!
फॉर्म भरते - भरते उसे काफी देर हो चुकी थी. बीसियों पेज, पचासों साइन और सैकड़ो शर्तों को पढ़ते - पढ़ते उसे वास्तव में क़र्ज़ अभी से एक बोझ लगने लगा था. क्या क़र्ज़ की इन छपी हुई शर्तों पर मै वास्तव में खरा उतर पाऊँगा. कहीं पत्नी सही तो नहीं कह रही थी, क्या क़र्ज़ लेने और चुकाने के लिए पूर्व अनुभव की वास्तव में जरूरत है ? क्या मैंने इस बोझ कों कभी वास्तव में महसूस किया है? सोचते सोचते वह बचपन की धूल भरी गलियों में कही गुम हो गया.
इंटरवल की घंटी बजते ही सारे बच्चे ऐसे भागे जैसे किसी कसाई की बाड़ से छूट कर मेमने भागते हैं. अभी हाल ही से एक एक चने वाला स्कूल के बाहर अपना खोमचा लगाना शुरू किया है. क्या मसालेदार चना बनाता है वो. सभी को जल्दी है उस के खोमचे तक पहुचने की ताकि चने ख़तम ना हो जाय. उनसे जेब में हाथ डाला, पूरे पचीस पैसे थे. पंद्रह पैसे का चना लेकर दस पैसा कल के लिए जेब के हवाले कर वह भीड़ से बाहर निकला. पूरी शान के साथ चने का कोन हाथ में उठाये वह अमीर बनियों और पटेल के बेटों के बीच में पहुँच गया. उनके हाथों में बड़े बड़े कोन थे लेकिन उसे अपने छोटे कोन से भी कोई शिकायत नहीं थी. वैसे भी कोई उसके छोटे कोन पर ध्यान नहीं देता था.
कुछ दिनों तक कभी पेंसिल, कभी कापी, कभी रबर के बहाने उसके चने की व्यवस्था होती रही लेकिन उसके बढ़े (?) खर्च का बोझ उसके घर वालों को महसूस होना ही था इसलिए अब आये दिन वह खाली हाथ ही स्कूल जाने लगा था .
जिस दिन उसके पास पैसे नहीं होते तो वह इंटरवल में क्लास से बाहर ही नहीं निकलता. झूठ मूठ में अपनी कापी में कुछ बकाया काम पूरा करने का दिखावा करता रहता. बाहर से बच्चों के खिलखिलाने की आवाज जाहिर करती थी कि आज भी चने मजेदार बने हैं. धीरे धीरे उसका इंटरवल में बाहर निकलना लगभग बंद ही हो गया.
उसकी क्लास में पढने वाले शंभू से उसकी हालत ज्यादा दिन तक छुपी नहीं रह पायी. पिछले दो साल से वह उसका सबसे करीबी भी था . उसके पास हमेशा अपने खर्च से ज्यादा पैसे हुआ करते थे. एक दिन उसके हाथ में पचास पैसे रखते हुए वह बोला, यह ले लो बाद में जब तुम्हारे पास हो जाएँ तो वापस कर देना. शुरूआती झिझक के बाद बाल सुलभ लालच वश उसने पैसे अपने पास रख लिए. अब फिर वह आये दिन इंटरवल में चने की कोन थामे बच्चों की भीड़ में दिखाई देने लगा. कभी पचीस पैसे तो कभी पचास पैसे, सारा हिसाब किताब एक कापी में लिखा जाने लगा. धीरे धीरे सिक्कों की लकीर लम्बी होती चली गयी.
जैसा अक्सर होता आया है, वफादारियां बदलती रहती हैं नए दोस्त बनते हैं पुरानों से खटपट होती है, वैसा ही कुछ उनके बीच हुआ और शंभू से संबंधों में कड़वाहट आनी शुरू हो गयी. शायद शंभू भी एक तरफा वफादारी से ऊब चुका था और बात बिगड़ते बिगड़ते 'हिसाब किताब' तक आ गयी. पैसे जोड़े गए तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी. पूरे 'सात' रूपये का उधार उस पर चढ़ चुका था. कहाँ तो पचीस - पचास पैसे का टोटा और यहाँ 'सात रूपये' की देनदारी! उसका चेहरा परेशानी के मारे फक पड़ गया. कहाँ से लायेगा वह सात रूपये? शंभू ने उधार चुकाने के लिए उसे बस एक हफ्ते की मोहलत दी.
शाम को घर पहुच कर उसने माँ की पोटली की तलासी ली कि कुछ मागने से पहले उसकी आर्थिक स्थिति का जायजा ले लेना ठीक रहेगा. पोटली में कुछ नहीं मिला. फिर भी आशा थी कि माँ जरूर कोई व्यवस्था कर देगी. मौका देखकर उसने माँ से सात रूपये की फरमाईस कर दी. सात रूपये की मांग सुनकर माँ दंग रह गयी. उसे लगा कि वह मजाक कर रहा है, आखिर उसे सात रूपये कि क्यों जरूरत पड़ गयी. और फिर वह सात रूपये लाएगी भी तो कहाँ से? पिताजी से मांगने का कोई प्रश्न ही नहीं था.
जैसे जैसे एक एक दिन बीतता गया उसके चेहरे से बाल सुलभ कोमलता और चंचलता जाती रही . नाजुक सा बाल मन 'भयंकर' क़र्ज़ के बोझ तले कुचलता जा रहा था. चेहरे पर अथाह जिम्मेदारियों जैसे बोझ ने उसकी स्वाभाविक मनोभावों को बदल डाला था. उसकी यह दशा शंभू से छुपी नहीं रह सकी लेकिन उसने बीच बीच में अंतिम तिथि की याद दिलाना जारी रखा. उसे इस सात रूपये के क़र्ज़ ने कुचल कर लगभग मसल डाला था.
आखिरी एक दिन बचा था. वह स्कूल नहीं जाना चाहता था लेकिन आखिर कितने दिन तक. उसके पास एक आखिरी लेकिन 'बेहद क्षीण' उम्मीद की किरण बची थी. वे थे दादाजी. लेकिन वे कहाँ से पैसे लायेंगे ? वे तो खुद थोड़े थोड़े से पैसे पिताजी और चाचाजी से मांगने की असफल कोशिश करते रहते थे. फिर भी प्रयास करने के आलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. कम से कम डांट पड़ने का डर तो नहीं था. हिम्मत करके दादाजी से सात रूपये की फरमाईस कर ही डाली.
वे दादाजी जो खुद एक दो रूपये के लिए अपने 'बेटों' पर निर्भर थे सात रूपये की मांग पर स्तब्ध रह गए. लेकिन नाराज होने के बजाय इस 'विशेष' राशि की मांग का उन्होंने कारण पूछा. बड़ी ईमानदारी से उसने पूरी घटना दादाजी को बता डाली. दादाजी काफी देर तक सोच में पड़े रहे फिर उठ कर कहीं चले गए. वह भी निराशा में उठ कर स्कूल चला गया.
शाम को स्कूल से बुझे चेहरे के साथ लगभग घिसटते हुए वह घर की और चल पड़ा, रास्ते में कल शंभू से होने वाले वाक युद्ध का मन ही मन अभ्यास करते हुए. वह उससे कुछ और वक़्त मांग लेगा या फिर पैसे देने से मना ही कर देगा. बात बहुत बिगड़ी तो फिर मारपीट भी हो सकती है, कोई बात नहीं अपने हाथ में अब है ही क्या. बस पिताजी को इस क़र्ज़ के बारे में न पता चले. कहीं दादाजी ही न उन्हें बता दें. इसी उधेड़ बुन में कब घर आ गया यह उसे पता ही न चला. अचानक दादाजी की आवाज से वह चौंका ! यह लो सात रूपये और लौटा दो उसका.
उसको अपने कानों पर जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. उसके पैसों की व्यवस्था हो चुकी थी और वह भी दादाजी द्वारा.
घंटी की कर्र्र सी आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई. शायद बच्चे स्कूल से वापस आ गए थे. पेन उसके हाथ में था, लोन का फॉर्म खुला पड़ा था. उसने एक बार 'सात लाख' की रकम पर नज़र डाली उसे वह 'सात रूपये' से कहीं कम लगी. उसने अपने स्वर्गीय दादाजी को प्रणाम करते हुए फॉर्म पर अंतिम दस्तखत कर डाला.





13 January 2009

भोर

झिलमिल सितारों से भरी,
आकाशगंगा की परी,
लहरा के आँचल चल पड़ी,
नाज़ुक, लचकती बल्लरी,

मखमल सी कोमल चाँदनी,

कलकल, नदी की रागिनी,
बंसी की मादक तान,
जैसे भैरवी, शिवरंजिनी,

पायल में छमछम सी खनक,

आंखों में जुगनू की चमक,
शीतल पवन यूँ मंद-मंद,
सासों में फूलों की महक,

'प्रियतम' बड़ा बेकल अधीर,

उस छोर झांके नभ को चीर,
सदियों से लम्बी हर घड़ी,
'क्यूँ चल रही धीरे, अरी'?

बेला मिलन की आसपास,

चहु ओर लाली की उजास,
आलिंगनबद्ध 'निशा-भोर'
धरती को नवजीवन की आस।

9 January 2009

तूं मुझे खुजा मै तुझे खुजाऊं

आज पीठ में बहुत खुजली हो रही है और वह भी ऐसी जगह जहाँ तक येढे, मेढे, टेढे, कैसे भी होकर हाथ पहुच ही नही रहा. वैसे खुजली तो कहीं पर भी हो सकती है मसलन सर, आँख, नाक, कान, गला, सीना, पेट, कमर .......आदि. मगर हाथों में खुजली होने पर विशेष आनंद आता है. एक तो खुजलाते वक्त खुजलाहट' का आनंद और दूजा कुछ ''ऊपरी नगद नारायण'' की प्राप्ति होने की आशा का आनंद.
एक दिन एक दरोगा जी को हवालदार से कहते सुना : अरे मिश्रा जी, आज हाथ में बड़ी खुजली हो रही है, काफी दिन से हाथ साफ नही किया, किसी को पकड़ते जरा. मिश्रा जी बोले : अरे साहेब ! अभिये लीजिये, आने दीजिये किसी ठेला-रिक्शा वाले को. मैंने सोचा कि लगता है दरोगा जी कई दिन से नहाये नही हैं और रिक्शा वाले से रगड़वा-रगड़वा कर ' काई छुड़वाएंगे. फ़िर आगे कुछ सोचा ही नही। पुलिस वाले का क्या ? नहाये या नहाये या बदबू मारे, उनसे सटने ही कौन जाता है. और फ़िर रात दिन चोर उचक्कों का साथ, हाथ में 'काई' तो जमती ही है।
खैर थोडी देर में एक कबाडी वाला हांक लगाता हुआ गुजरा. हवालदार ने बेंत लपलपा कर रोका उसे.
अबे रुक ! क्या है बे ? चोरी का माल बेंचता है स्साले?
नही साब ! खाली रद्दी का अख़बार है, अउरो कुछ नही है.
स्साले ! चोट्टे ! चल निकाल बीस रूपये.
अरे साब, बीस रूपये कहाँ से दूँ ? जितना था सब का रद्दी खरीद लिया, यही तीन रुपया बचा है.
हरामी साले जबान लडाता है ? और तीन रूपये अपने जेब के हवाले कर हवालदार उसे दरोगा जी के पास ले गया.
साहेब ! बिना 'परमिट' के कबाडी का काम कर रहा है साला अपने हलके में.
अच्छा ? क्यों बे ! पर्ची कटवाई चौकी पे ?
नाही माई बाप, पर्ची का है ? हम नए-नए काम शुरू किए हैं, हमें कुछ मालूम नाही है साब !
मिश्रा ! जरा बेतवा दीजियेगा ! ससुरे को पर्ची बतावें क्या होता है.
और उसके बाद ! सटाक - सटाक, चट-चट, धम-धम - - - - - . चल रख सारी रद्दी यहीं ! भाग यहाँ से !
कबाडी के जाने के बाद दरोगा जी ने कृतग्य भावः से मिश्रा जी को देखा. मिश्रा ! बहुत दिन बाद ससुरा हाथ साफ करने को मिला . लेकिन साले का चमड़ी नरम नही था, सोटे का निशान तो पड़बे नही किया. अरे हाँ ! रद्दिया लेते जाव. आज के तरकारी के जुगाड़ हुआ .
मिश्रा जी रद्दी समेटते हुए बोले, कौन पछताने की बात है साहेब, नरम चमड़ी वाले को पकड़ लाते हैं, एक बार फ़िर हाथ साफ़ कर लीजिये.
और इससे पहले मिश्रा जी के खोजी नयन मेरी ओर पड़ें, मै वहां से भागा.
भाइयों ! मै इस खुजली पुराण के बीच में थाने से 'लाइव टेलीकास्ट' के लिए क्षमा चाहता हूँ. लेकिन उस दिन 'हाथ की खुजली' छुडाने का एक नया मतलब भी पता ! लगा
खैर मै जगह - जगह होने वाली खुजली के बारे में बता रहा था। कभी कभी तोसरेआम ऐसी जगह खुजली उठती है कि आदमी अश्लील हरकतें करता हुआ प्रतीत होता है. औरतें 'बेशर्म' होने की गाली देने लगती हैं, अफसर कमरे से बाहर तक भगा देते हैं, बीबी शक की नज़र से देखने लग जाती है. एक बार मेरे एक सहकर्मी ऐसी ही खुजली से परेशान थे, इसलिए जब वे अपने अफसर के चैंबर में जाते थे तो अपने दोनों हाथ पीछे करके अँगुलियों को आपस में जकड लेते थे. अफसर बहुत कड़क था इसलिए उन्होंने कभी रिस्क नही लिया. हाँ ! चैंबर से बाहर निकल कर पहले वे दस मिनट अपनी खाज मिटा लेते थे तभीआगे बढ़ते थे.
एक 'कोढ़ में खाज' होती है . अगर किसी के प्रोमोसन के अगले ही दिन एक करोड़ की लाटरी लग जाय तो उसके पड़ोसी की मनोदशा 'कोढ़ में खाज' जैसी ही होती है. सुनते हैं कोई - कोई 'खाज' कोढ़ में भी बदल जाता है. भाड़ में जाए वो.
कई "खुजैले" कुत्ते भी होते हैं, हमेशा अपनी ही पूछ की जड़ नोचने के चक्कर में चरखी की तरह नाचते हुए।लेकिन खुजली के सम्राट का खिताब तो 'अपुन के पूर्वज' बन्दर को ही मिला हुआ है. मुझे कई बार शक होता है कि खुजली का सम्बन्ध कहीं "अल्लाउद्दीन खिलजी" के साथ तो नही. फिलहाल इतिहासकार ही पता लगायें तो बेहतर होगा.
अब मै अपनी खुजली पर वापस लौटता हूँ. पीठ की खुजली कमबख्त बहुत बुरी चीज है . कितना भी स्वाभिमानी आदमी हो उसे बेशर्म बना देती है. उसे या तो येढा , मेढा , टेढा होना पड़ता है या दूसरे से मदद लेनी पड़ जाती है . वैसे खुजली के मामले में पत्नी या प्रेमिका की मदद कभी नही लेना चाहिए, कई बार यह बेहद "आपत्तिजनक" और "गंभीर" अंजाम तक पहुँच जाता है.
बहर हाल कोई मददगार अगर मिल जाता तो उससे मै अपनी पीठ खुजलवा लेता. अगर कोई पीठ की ही खुजली वाला बन्दा मिल जाए तो क्या कहने. वो मेरी पीठ खुजाता और मै उसकी पीठ. किसी पे कोई एहसान नही. सारा उधार तुंरत वापस. भाई कोई है, जो मेरी पीठ खुजा देगा ?
विनोद श्रीवास्तव


8 January 2009

एक सुना सुना सा गीत

मेरे हुज़ूर मुझसे भी नजर मिलाइए,
कुछ तो बात, अपने भी दिल की सुनाइये,

मेरे
हुज़ूर मुझसे भी नजर मिलाइए।

शर्म-ओ-हया के जुल्म की तो हद ही हो गई,
मुखड़े से अब नकाब की परतें हटाइए.

मेरे हुज़ूर..........

मैंने किया है प्यार, आपसे बे-इन्तहां,
फ़िर क्यूँ न जिद करुँ, जरा ये तो बताइए.

मेरे हुज़ूर..........

थोड़ा सा चाँद, देखिये नजर में आ गया,
पूनम का चाँद भी जरा जल्दी दिखाइए.

मेरे हुज़ूर..........

तिरछी नज़र तेरी, जिगर को तार कर गई,
अब तो इलाज़ दर्दे-दिल का करके जाइए.

मेरे हुज़ूर..........

जन्नत है इस जहाँ में, यकीन हो गया,
सीने के पास, थोड़ा और पास आइये.

मेरे हुज़ूर..........

जीना है कई उम्र, मुझे यूँ ही तेरे संग,
आबे-हयात एक घूँट आज चाहिए.

मेरे हुज़ूर मुझसे भी नजर मिलाइए.

विनोद श्रीवास्तव




5 January 2009

सोन मछरी

नेपाल के तराई इलाके में एक लोक कथा " सोन मछरी " प्रचलित है और उस पर कई लोक गीत भी गाये जाते हैं. श्री हरिवंश राय बच्चन जी ने भी उसी कथा पर आधारित एक कविता लिखी है. उस कथा का सारांश कुछ इस तरह से है.
सोन नदी के किनारे एक गाँव में मछुआरे का एक परिवार बहुत प्रेम से रहता था . मछुआरा रोज मछली पकड़ने जाता था और ढेर सारी मछलियाँ बेच कर खूब पैसे कमाता था. मछुआरे और उसकी पत्नी का जीवन बड़े आनंद में कट रहा था.
एक रात पत्नी ने प्रश्न किया कि तुम इतने बड़े मछुआरे हो तो मेरे लिए "सोन मछरी" पकड़ कर क्यों नहीं लाते ?
मछुआरा चौंका ! अरे तुम्हे 'सोन मछरी' की क्या जरूरत है ? और 'सोन मछरी' कोई सच्ची थोड़े ही होती है. वो तो किस्से कहानियो की बातें है.
लेकिन मछुआरिन अड़ गयी कि उसे 'सोन मछरी' चाहिए ही चाहिए . उसने खाना पीना छोड़ दिया.
स्त्री हठ के आगे मछुआरे को झुकना पड़ा और वह कई दिन का खाने पीने का सामान ले कर 'सोन मछरी' पकड़ने चल दिया.
मछुआरा अगले कई महीनो तक घर नहीं लौटा और उसकी पत्नी उसकी राह देखती रही.
एक दिन गाँव में शोर हुआ कि मछुआरा लौट आया . पत्नी नदी तट की ओर दौडी. उसने देखा कि मछुआरे के साथ एक बहुत सुंदर युवती भी है.
उसने पूछा कि यह कौन है?
मछुआरे ने जबाब दिया " यही तो सोन मछरी है. इसे बहुत दूर से पकड के लाया हूँ और अब यह अपने साथ ही रहेगी.
मछुआरिन को सारा माज़रा समझ में आ गया लेकिन उसके पास अब पछताने के शिवा कोई चारा नहीं था.
********************
कहानी का निष्कर्ष बहुत साधारण है लेकिन क्या हममे से कोई उस मछुआरिन से अलग है ? वह तो भोली औरअनपढ़ थी और "सोन मछरी" के लालच में सौतन बुला बैठी लेकिन क्या पढ़े लिखे और विद्वान लोग भी "सोनमछरी" के लालच से अछूते हैं ? क्या महलों की रानी सीता भी "स्वर्ण मृग" के लोभ में नहीं गई थी.
हम सब अपने सुखी वर्तमान से संतुष्ट नही रह पाते और, ज्यादा -और- ज्यादा, के जाल में उलझते जाते हैं. इसजाल की फाँस अधिकतर मामलों में त्रादश ही होती है. लेकिन लगता है कि इसमे फँसना ही मानव की नियति है.

वजह

उदास हो के ना इस शाम को उदास करो
कोई तो मुस्कुराने की वजह तलाश करो


संवेदनशील कवि मित्र विजय कुमार स्वर्णकार जी से साभार

बेटा

मेरे गाँव के चोकट बाबा जो वहां के पोस्टमैन भी थे, शाम को अक्सर मेरे घर जाया करते थेगाँव के और भी बड़े बुजुर्गों की जमघट लगती थीवहीं पर टीमल यादव की भैंस के खेत चर लेने से लेकर लेबनान की समस्या तक डिस्कस होती थीहम बच्चों को उन बातों में बड़ा मजा आता था और जानकारियां (?) भी बढ़ती थीलेकिन चोकट बाबा की बात और थीवे रोज कुछ नई चीज सुनाते थे जो मजेदार के साथ साथ कई बार शिक्षाप्रद भी होती थीउनके सुनाये एक प्रसंग का जिक्र यहाँ सामयिक हैप्रसंग का भोजपुरी में ही प्रस्तुतीकरण उसके मर्म तक पहुचना सुगम बनाता है
दृश्य : एक पिता अपने एक - डेढ़ साल के बच्चे को गोद में खिला रहा है और उसका बच्चा एक कौए को देख कर पूछता है:
"
दादा का है ?
बेटा कौवा है
आं ?
बेटा कौवा है
आं ?
कौवा है
आं ?
कौवा है बेटा
.....
.............
......"
दृश्य : करीब तीस पैतीस साल बाद : बूढा पिता बाहर ओसारे में पुआल पर गुदडी ओढे सिकुडा हुआ हैतभी बेटे के ससुराल से कुछ मेहमान आते हैं और सीधे घर के अन्दर प्रवेश कर जाते हैंपिता मेहमान के बारे में स्वभावगत जिज्ञासा वस बेटे से पूछता है :
"
बेटा के रहल हवे ? ( बेटा कौन था?)
केहू नाइ । ( कोई नही)
नाही ! केहू अन्दर गइल हवे। ( नही, कोई अंदर गया है)
का बकबक बकबक ले रहलअपने काम से काम रख "
और पिता चुपचाप अपनी गुदडी में और सिकुड़ लेता है
इस कहानी का मर्म समझाने की आवश्यकता नही है क्योंकि लगभग हर घर की यही कहानी है। इस संवेदना हीन समाज में बेटे से इससे ज्यादा 'रहम' की उम्मीद नही की जा सकती है। यह विडम्बना है कि सारी जवानी बेटों को जवान करने में लुटा देने के बाद जब ख़ुद की आँखे, शरीर, हड्डियाँ और दिमाग साथ छोड़ने लगते हैं तभी अपने ही शरीर का अंश बेटा भी मुंह फेर लेता हैउस वक्त जब परिवार के देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी कोई आँख उठा कर देखने वाला नही होता हैएक बाप तीन - तीन चार - चार बच्चों को पचीस सालों तक पाल पोस कर बड़ा करता है लेकिन तीन - तीन चार - चार बच्चे मिल कर एक माँ बाप को कुछ साल नही पाल सकते।

4 January 2009

कहीं वह मृत्यु तो नही?

क्या हम सब किसी (कल्पित) चरम दिन की प्रतीक्षा नही कर रहे हैं ? बचपन में बड़े होने की, बड़े होने पर और बड़ेहोने की , अच्छे कैरियर में स्थापित होने की , फिर जीवन साथी मिलने की, कभी सुंदर घर बन जाने की, आदि आदि ...प्रतीक्षा। और पुनः यही सब अपने बच्चों के लिए। व्यक्ति के पुरुषार्थ, क्षमता, अवसर और परिस्थिति के अनुसारउन्हें मिलती भी जाती हैं। लेकिन हर इच्छा की प्राप्ति पर पुनः अतृप्ति ? फिर कुछ खालीपन, फिर किसी अन्य सुखकी प्रतीक्षा ! वह कौन सी कमी है जो जीवन पर्यंत पूरी नही हो पाती। हम किस चरम आनंद की प्रतीक्षा कर रहे हैं? कहीं वह ईश्वर से साक्षात्कार तो नही ? कहीं वह मृत्यु ही तो नही?

3 January 2009

नरभक्षी गिद्ध

गिद्धों की अखिल भारतीय वार्षिक सम्मलेन में एक बार फिर सर्व सम्मत से निर्णय लिया गया : इस वर्ष भी नेताओं की लाशों को कोई गिद्ध चोंच नही लगायेगा।
कहीं से कोई विरोध नहीं, लगभग पूरी एकता, और
प्रस्ताव पारित ! भूखों मर जायेंगे, हलवा-पूरी खा के जिन्दा रह लेंगे लेकिन नेता भक्षण नही करेंगे । जिन्दा मानुष नोच कर खाने वाले तो अपनी बिरादरी के ही हैं, बल्कि हमसे भी नीच जाति के हैं, भला उन्हें हम कैसे खा सकते हैं।
एक गिद्ध खड़ा हो कर बोला, नेता खाने को तो वैसे भी नही मिलता, कमबख्त टाइट सिक्यूरिटी में रहते हैं, मरते भी कम हैं । बुजुर्गों ने उसे घूर कर डपटा, ऐसे कहीं बोलते हैं नेताओं के बारे में? बेटा ! नेता हैं इस देश में तो खाने को भी मिल रहा है, नही तो अब तक फल-फूल, दाल, रोटी, सब्जी या मेवा- मिठाई खा के जिन्दा रहना पड़ता । नौजवान को अपनी गलती का जैसे बोध हुआ और अपने इलाके के नेताजी का श्रद्धा पूर्वक स्मरण करते हुए बैठ लिया।
एक खोजी गिद्ध पीछे से बोल उठा, ऐसे तो हम पुलिस भी नही खा सकते । वे नेताओं से कम नोच रहे हैं क्या ? अभी हाल
ही में एक नेता ने पुलिस के साथ मिल कर एक इंजिनियर का शिकार किया है. सबकी चोंचें उसकी ओर आश्चर्य से मुडी। एक पदाधिकारी बोला : भला ए तुमने कौन सी नई रिपोर्टिंग की है ? ऐसे शिकार तो हमेशा से वे करते आ रहे हैं। और पुलिस खाना तो हमने अंग्रेजो के टाइम से ही बंद कर रखा है। हाँ ! लेकिन आपलोग नेता और पुलिस को ग़लत निगाह से न देखें । वे है अपनी ही समाज से, फर्क शिर्फ़ यह है कि वे जिन्दा और मालदार शिकार खोजते हैं और हम मरे जानवरों को साफ करते हैं। खोजी गिद्ध ने खिसिया कर चोंच घुमा ली
सभा के समाप्त होते होते यह निर्णय हुआ कि गिद्ध समाज के अगले सम्मलेन में नेताओं और पुलिस को भी आमंत्रित किया जाएगा
सुनते हैं कि नेताओं और पुलिस में खुशी कि लहर है कि आखिरकार गिद्धों ने उन्हें अपने समाज में जगह दे ही दी
(वीभत्स ब्लॉग के लिए छमा ! क्या करें, नेता और पुलिस के बारे में लिखने पर वीभत्स रस अपने आप टपक लेताहै । )
विनोद श्रीवास्तव