25 February 2009

क़र्ज़

"Co-applicant" के स्थान पर साइन करने के लिए पत्नी के हाथ में फार्म और पेन बढ़ाते हुए उसकी आंखों में आशा की चमक साफ दिख रही थी। आखिरकार पत्नी को Co-applicant मानते हुए बैंक उसके लोन की रकम बढ़ाने पर राजी हो गया था. पिछले दो सप्ताह से बैंक के अफसरों को अपनी re-payment की हैसियत समझाने में उसके पसीने छूट गए थे. अगर कोई 'न मानने' पर उतर आये तो उसे convince करना कितना मुश्किल होता है. आखिरकार एक और गारंटर की व्यवस्था पर उसकी पत्नी की प्राइवेट नौकरी की अपेक्षाकृत छोटी सी आय को स्वीकार करते हुए बैंक सात लाख का लोन देने को राजी हुआ था.
" ड्राइंग रूम में लाईट ब्लू और अपने बेड रूम में लाईट पिंक ठीक रहेगा ना ? दूसरे बेड रूम में क्रीम कलर कराना है. तुम्हे भी तो लाईट कलर ही पसंद है "
पत्नी को निरपेक्ष और निरुत्साहित पाकर उसने विषय बदला. "तुम्हारे भैया की रजिस्ट्री आज भी आई कि नहीं ? परसों फोन आया था तो कह रहे थे कि ड्राफ्ट भेजे हुए चार दिन हो गए. डीलर अडवांस के लिए दो बार फोन कर चुका है. बोल रहा था कि एक और "पार्टी" तुंरत पेमेंट के लिए तैयार है. कहीं यह फ्लैट हाथ से निकल न जाय".
"क्या अभी ही फ्लैट लेना ज़रूरी है ? जब अपने पास पूरे पैसे नहीं हैं तो इतना सारा क़र्ज़ लेकर फ्लैट खरीदने की क्या ज़रुरत है ? तुम्हारे किसी भी मित्र ने अभी तक अपना मकान नहीं लिया, सभी सरकारी क्वार्टर में ही रह रहे हैं. सिर्फ तुम्हे ही अपने मकान में जाने की पड़ी है . अच्छा भला दिल्ली के सेंटर में रह रहे हैं अब इतनी दूर रोहिणी जा कर रहेंगे". पत्नी ने बजाय जबाब देने के, एक साथ कई प्रश्न दागे.
" अरे भाई ! अपना फ्लैट लेने में गलत क्या है ? इतनी मुश्किल से तो लोन पास हुआ है और जब रहना दिल्ली में ही है तो अपने घर में क्यों न रहे ? जितना HRA कट रहा है उतना ही और मिला कर EMI देना है. आखिर अपना खुद का घर खरीद रहे हैं, इसमें बुराई क्या है"?
" बुराई अपना घर खरीदने में नहीं बल्कि 'सात लाख' के बैंक लोन में है. मैंने इतना बड़ा क़र्ज़ लेते न तो कभी किसी को देखा और ना ही सुना है. दो - चार साल तक हो तो भी चल जाय, यहाँ तो पूरे बीस साल तक किश्तें भरते रहना पड़ेगा. सब दिन एक जैसे नहीं होते, बीस साल में पता नहीं क्या क्या खर्च आ पड़े. इतने बड़े कर्जे के बारे में सोच कर ही मेरा दिल बैठा जा रहा है, मै इस सरकारी मकान में ही खुश हूँ ". पत्नी ने रूआंसे होते हुए लगभग अपना फैसला सुना डाला.
" देखो तुम्हे मेरे ऊपर भरोसा नहीं है क्या? मैंने भी सब ऊंच-नीच सोच कर ही फैसला लिया है. अब जमाना पहले जैसा नहीं है, रिस्क उठा कर काम करने वाले आजकल ज्यादा सफल हैं. और अगर बहुत बुरा वक़्त आया तो यही फ्लैट re-sell करके क़र्ज़ चुका देंगे. चलो साइन करो आज ही फॉर्म जमा करना है ". उसने अपना आखिरी और असरदार तर्क पेश किया.
पत्नी बेमन से फॉर्म पर साइन करते हुए बोली, तुमने अभी तक क़र्ज़ का बोझ महसूस नहीं किया है ना इसीलिए इतने आत्मविश्वास में हो. अगर कभी महसूस किया होता तो क़र्ज़ लेने की ना सोचते. लो खरीदो अपना खुद का फ्लैट!
फॉर्म भरते - भरते उसे काफी देर हो चुकी थी. बीसियों पेज, पचासों साइन और सैकड़ो शर्तों को पढ़ते - पढ़ते उसे वास्तव में क़र्ज़ अभी से एक बोझ लगने लगा था. क्या क़र्ज़ की इन छपी हुई शर्तों पर मै वास्तव में खरा उतर पाऊँगा. कहीं पत्नी सही तो नहीं कह रही थी, क्या क़र्ज़ लेने और चुकाने के लिए पूर्व अनुभव की वास्तव में जरूरत है ? क्या मैंने इस बोझ कों कभी वास्तव में महसूस किया है? सोचते सोचते वह बचपन की धूल भरी गलियों में कही गुम हो गया.
इंटरवल की घंटी बजते ही सारे बच्चे ऐसे भागे जैसे किसी कसाई की बाड़ से छूट कर मेमने भागते हैं. अभी हाल ही से एक एक चने वाला स्कूल के बाहर अपना खोमचा लगाना शुरू किया है. क्या मसालेदार चना बनाता है वो. सभी को जल्दी है उस के खोमचे तक पहुचने की ताकि चने ख़तम ना हो जाय. उनसे जेब में हाथ डाला, पूरे पचीस पैसे थे. पंद्रह पैसे का चना लेकर दस पैसा कल के लिए जेब के हवाले कर वह भीड़ से बाहर निकला. पूरी शान के साथ चने का कोन हाथ में उठाये वह अमीर बनियों और पटेल के बेटों के बीच में पहुँच गया. उनके हाथों में बड़े बड़े कोन थे लेकिन उसे अपने छोटे कोन से भी कोई शिकायत नहीं थी. वैसे भी कोई उसके छोटे कोन पर ध्यान नहीं देता था.
कुछ दिनों तक कभी पेंसिल, कभी कापी, कभी रबर के बहाने उसके चने की व्यवस्था होती रही लेकिन उसके बढ़े (?) खर्च का बोझ उसके घर वालों को महसूस होना ही था इसलिए अब आये दिन वह खाली हाथ ही स्कूल जाने लगा था .
जिस दिन उसके पास पैसे नहीं होते तो वह इंटरवल में क्लास से बाहर ही नहीं निकलता. झूठ मूठ में अपनी कापी में कुछ बकाया काम पूरा करने का दिखावा करता रहता. बाहर से बच्चों के खिलखिलाने की आवाज जाहिर करती थी कि आज भी चने मजेदार बने हैं. धीरे धीरे उसका इंटरवल में बाहर निकलना लगभग बंद ही हो गया.
उसकी क्लास में पढने वाले शंभू से उसकी हालत ज्यादा दिन तक छुपी नहीं रह पायी. पिछले दो साल से वह उसका सबसे करीबी भी था . उसके पास हमेशा अपने खर्च से ज्यादा पैसे हुआ करते थे. एक दिन उसके हाथ में पचास पैसे रखते हुए वह बोला, यह ले लो बाद में जब तुम्हारे पास हो जाएँ तो वापस कर देना. शुरूआती झिझक के बाद बाल सुलभ लालच वश उसने पैसे अपने पास रख लिए. अब फिर वह आये दिन इंटरवल में चने की कोन थामे बच्चों की भीड़ में दिखाई देने लगा. कभी पचीस पैसे तो कभी पचास पैसे, सारा हिसाब किताब एक कापी में लिखा जाने लगा. धीरे धीरे सिक्कों की लकीर लम्बी होती चली गयी.
जैसा अक्सर होता आया है, वफादारियां बदलती रहती हैं नए दोस्त बनते हैं पुरानों से खटपट होती है, वैसा ही कुछ उनके बीच हुआ और शंभू से संबंधों में कड़वाहट आनी शुरू हो गयी. शायद शंभू भी एक तरफा वफादारी से ऊब चुका था और बात बिगड़ते बिगड़ते 'हिसाब किताब' तक आ गयी. पैसे जोड़े गए तो उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी. पूरे 'सात' रूपये का उधार उस पर चढ़ चुका था. कहाँ तो पचीस - पचास पैसे का टोटा और यहाँ 'सात रूपये' की देनदारी! उसका चेहरा परेशानी के मारे फक पड़ गया. कहाँ से लायेगा वह सात रूपये? शंभू ने उधार चुकाने के लिए उसे बस एक हफ्ते की मोहलत दी.
शाम को घर पहुच कर उसने माँ की पोटली की तलासी ली कि कुछ मागने से पहले उसकी आर्थिक स्थिति का जायजा ले लेना ठीक रहेगा. पोटली में कुछ नहीं मिला. फिर भी आशा थी कि माँ जरूर कोई व्यवस्था कर देगी. मौका देखकर उसने माँ से सात रूपये की फरमाईस कर दी. सात रूपये की मांग सुनकर माँ दंग रह गयी. उसे लगा कि वह मजाक कर रहा है, आखिर उसे सात रूपये कि क्यों जरूरत पड़ गयी. और फिर वह सात रूपये लाएगी भी तो कहाँ से? पिताजी से मांगने का कोई प्रश्न ही नहीं था.
जैसे जैसे एक एक दिन बीतता गया उसके चेहरे से बाल सुलभ कोमलता और चंचलता जाती रही . नाजुक सा बाल मन 'भयंकर' क़र्ज़ के बोझ तले कुचलता जा रहा था. चेहरे पर अथाह जिम्मेदारियों जैसे बोझ ने उसकी स्वाभाविक मनोभावों को बदल डाला था. उसकी यह दशा शंभू से छुपी नहीं रह सकी लेकिन उसने बीच बीच में अंतिम तिथि की याद दिलाना जारी रखा. उसे इस सात रूपये के क़र्ज़ ने कुचल कर लगभग मसल डाला था.
आखिरी एक दिन बचा था. वह स्कूल नहीं जाना चाहता था लेकिन आखिर कितने दिन तक. उसके पास एक आखिरी लेकिन 'बेहद क्षीण' उम्मीद की किरण बची थी. वे थे दादाजी. लेकिन वे कहाँ से पैसे लायेंगे ? वे तो खुद थोड़े थोड़े से पैसे पिताजी और चाचाजी से मांगने की असफल कोशिश करते रहते थे. फिर भी प्रयास करने के आलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था. कम से कम डांट पड़ने का डर तो नहीं था. हिम्मत करके दादाजी से सात रूपये की फरमाईस कर ही डाली.
वे दादाजी जो खुद एक दो रूपये के लिए अपने 'बेटों' पर निर्भर थे सात रूपये की मांग पर स्तब्ध रह गए. लेकिन नाराज होने के बजाय इस 'विशेष' राशि की मांग का उन्होंने कारण पूछा. बड़ी ईमानदारी से उसने पूरी घटना दादाजी को बता डाली. दादाजी काफी देर तक सोच में पड़े रहे फिर उठ कर कहीं चले गए. वह भी निराशा में उठ कर स्कूल चला गया.
शाम को स्कूल से बुझे चेहरे के साथ लगभग घिसटते हुए वह घर की और चल पड़ा, रास्ते में कल शंभू से होने वाले वाक युद्ध का मन ही मन अभ्यास करते हुए. वह उससे कुछ और वक़्त मांग लेगा या फिर पैसे देने से मना ही कर देगा. बात बहुत बिगड़ी तो फिर मारपीट भी हो सकती है, कोई बात नहीं अपने हाथ में अब है ही क्या. बस पिताजी को इस क़र्ज़ के बारे में न पता चले. कहीं दादाजी ही न उन्हें बता दें. इसी उधेड़ बुन में कब घर आ गया यह उसे पता ही न चला. अचानक दादाजी की आवाज से वह चौंका ! यह लो सात रूपये और लौटा दो उसका.
उसको अपने कानों पर जैसे विश्वास ही नहीं हुआ. उसके पैसों की व्यवस्था हो चुकी थी और वह भी दादाजी द्वारा.
घंटी की कर्र्र सी आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई. शायद बच्चे स्कूल से वापस आ गए थे. पेन उसके हाथ में था, लोन का फॉर्म खुला पड़ा था. उसने एक बार 'सात लाख' की रकम पर नज़र डाली उसे वह 'सात रूपये' से कहीं कम लगी. उसने अपने स्वर्गीय दादाजी को प्रणाम करते हुए फॉर्म पर अंतिम दस्तखत कर डाला.