2 March 2010

मज़हब

1.
मज़हब लाता है करीब,
इंसान को,
ईश्वर, अल्ला और ईशा के.
हजारों क़त्ल होके,
हो गए करीब,
ईश्वर, अल्ला और ईशा के.

2.
मज़हब तोड़ता है दीवार,
दिलों के बीच की,
राम, रहीम और पीटर के.
खंज़र उतरा था, ठीक
दिल की दीवारों में
राम, रहीम और पीटर के.

3.
मज़हब सिखा देता है हमें
जीने का ढंग,
हिन्दू सा, मुस्लिम सा, ईसाई सा.
क़त्ल कर लेते हैं हम
तभी तो,
हिन्दू सा, मुस्लिम सा, ईसाई सा.

27 February 2010

बात का बतंगड़

मैंने उनसे कहा - "बुरा न मानो होली है".
अरे ! होली में ये तो कहना ही पड़ता है. सभी कहते हैं, सो मैंने भी कहा. वैसे ये क्यों कहते हैं मालूम नहीं, लेकिन कहना पड़ता है. आखिर 'होली' जो है.
लेकिन मेरे कहने न कहने से क्या फर्क पड़ता है. किसी के कहने से कोई बुरा मानना छोड़ सकता है क्या. वो भी मेरे! मै तो कुछ न भी कहूं तब भी लोग बुरा मान जाते है, और आज तो मैंने कहा है.
मुझे यकीन है कि मेरे इतना कहने के बावजूद वे बुरा मान गए होंगे. अब इसमें मेरी गलती है या होली की, ये नहीं पता. उनकी गलती तो हो नहीं सकती . आखिर वे बुरा माने है, उनकी गलती कैसे हो सकती है.
वैसे हम सिर्फ होली में ही बुरा मानने से क्यों रोकते है ? इस 'मन्त्र' का प्रयोग पूरे साल करने में क्या हर्ज़ है ? मसलन: बुरा न मानो 'सन्डे' है , 'मंडे' है , 'वेलेंटाइन डे' है आदि आदि. इसी बहाने बुरा मानने की बुराई तो ख़त्म होगी.
एक गीत है - 'प्यार आँखों से जताया तो बुरा मान गए'.
अरे मै तो कहता हूँ कि गनीमत हो गयी कि वे सिर्फ 'बुरा' माने. यहाँ तो सैंडिल खाने की पूरी गुन्जाईस थी. प्यार भी कहीं आँखों से जताने की चीज़ है? मेरे कई मित्र सड़क चलते आँखों से प्यार जताने के चक्कर में सैंडिल खा चुके हैं.
वैसे मै तो कैसे भी प्यार जताऊँ, लोग बुरा ही मानते हैं. क्या ज़माना है ? प्यार जताना भी गुनाह हो गया.
एक ज्ञानी महापुरुष कह गए - प्यार बांटते चलो... प्यार बांटते चलो...
मेरी बीबी को शख्त नफरत है इस 'उपदेश' से. वैसे बीबियाँ तो अपने शौहरों की 'फिजूलखर्ची' पर हमेशा से ऐतराज़ करती ही आयीं हैं. लेकिन प्यार, जिससे ऊपर वाले ने हम शौहरों को लबालब भर कर भेजा है, बांटने को लेकर उनका ऐतराज़ मेरी समझ से बाहर है.
मेरे एक मित्र, जिनका नाम लिख दूं तो बुरा मान जायेंगे, को "बुरा न मानने" का रोग है. मैंने आज तक उनको बुरा मानते हुए नहीं देखा. 'बिना बात के' हंसने हंसाने में वे 'सिद्धू' को भी मात देते हैं. एक दिन भाभीजी खीज कर बोली, "ऊँट जैसा लम्बा शरीर पाए हो लेकिन दिन भर गधे की तरह ढेचू-ढेचू करते रहते हो".
आदत वश बिना बुरा माने फुसफुसाए: "और किस भाषा में बोलूँ, तुम्हे भी तो समझ में आनी चाहिए न".
वैसे तो "बुरा न मानना" कोई रोग नही है लेकिन जहाँ सभी लोग बात-बिना-बात बुरा मान रहें हों वहां 'बात' पर भी बुरा न मानना रोग ही है. एक दिन मुझसे नहीं रहा गया तो टोका: "अरे भाई ! इतना भी 'बुरा न मानना' ठीक नहीं है. कहीं ये बुढापा आने का लक्षण तो नहीं है? किसी वैद्य, हकीम को दिखा लेते". आजकल वे अच्छे हकीम की तलास में हैं.
किसी किसी की शक्ल बुरा मानने के लिए ही बनायी गयी लगती है. मायावती, ममता बनर्जी, करूणानिधि, अब्दुल्ला बुखारी, आडवानी, राखी सावंत, डैनी ....आदि आदि. इन लोगों के चेहरे पर कभी ख़ुशी के भाव नहीं देखे. ऐसे लोग शायद पैदा होते ही अपने माँ बाप पर बुरा माने होंगे.
मेरी तो सलाह है, न बुरा मानो न बुरा मानने की परवाह करो. अगर मुर्गा मुर्गी के बुरा मानने की परवाह करता तो अबतक 'डाइनासोर' की तरह गायब हो गया होता. ( कहीं डाइनासोर ऐसे ही तो नहीं लुप्त हो गए? जाँच का विषय है). आज बाज़ार से काला रंग लाया हूँ. इस बार खूब होली खेलूंगा और मुंह काला करूंगा. और हाँ ! चाहे कोई बुरा माने या भला, आज होली तो है ही.