5 June 2013

मथुरा की बारी
आज गाँव का कोई शख्श मेरे जेहन में सबसे ज्यादा आ रहा है तो वह मथुरा है. बहुत सालों बाद गाँव आया हूँ और यह पहले से काफी बदल चुका है. कच्ची गलियों में अब ईंट के खड़ंजे बिछ गए हैं. सरकार के  ‘स्वच्छता अभियान’ के तहत सभी घरों में गुसलखाने बन गए हैं जिनसे निकल कर बज-बजाता गन्दा पानी खड़ंजे के साथ साथ रेंगती नाली में सड़ांध मार रहा है. गाँव पहले से कई गुना बड़ा हो गया है और यहाँ का चौराहा किसी छोटे मोटे कस्बे का आभास देता है. गाँव को चौराहे से जोड़ने वाली सड़क के किनारे चार ऊँचे ऊँचे मोबाईल के टावर खड़े हो गए हैं. कभी इस जगह पर ताड़ के बहुत बड़े पेड़ होते थे जिन पर दिन रात गिद्ध चीख पुकार मचाये रखते थे. हमारे खेलने का वह मैदान, जिसे हम कर्बला कहा करते थे आज हरे रंग की ऊँची चारदीवारी से घिर गया है. इस मैदान पर अब मुसलमानों ने मदरसा बना लिया है. गाँव का मंदिर भी काफी बड़ा हो गया है और इसको भी चारदीवारी से घेर दिया गया है. गाँव की उत्तर दिशा में आम के बड़े बड़े बाग हुआ करते थे. आज वहां ईंट का एक विशाल भट्ठा धुआं उगल रहा है. बीसियों नए पक्के मकानों की एक कतार भट्ठे के पास तक चली गयी है.
     उन दिनों दो-एक पक्के और कुछ-एक खपरैल के मकानों के अलावा ज्यादातर लोगों के घर छप्पर के थे. गर्मियों में आस पास के लोग बिना संकोच दूसरे के घर के सामने या छत पर सो लिया करते थे. मेरे घर का ज्यादातर हिस्सा खपरैल का और एक हिस्सा पक्का था. खपरैल वाले घर में हम लोग रहते थे जबकि पक्का घर गाय बैल और भूसा रखने के लिए था. सर्दी हो या गर्मी, शाम को दरवाजे पर गाँव के बड़े बुजुर्गों की रोज बैठक लगती थी. अलाव के सामने बैठे - बैठे लोग ईरान - इराक युद्ध से लेकर   रंगा - बिल्ला की फांसी और स्काई लैब गिरने से लेकर ‘रंगी मास्टर’ के बुढ़ापे में दूसरी शादी रचाने तक के चर्चे किया करते थे. मै भी लालटेन के सामने किताब खोले, पढ़ने का नाटक करते गाँव से लेकर मध्य एशिया तक की खबरें सुन अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाता रहता था. गर्मियों में रौनक और बढ़ जाती थी. पड़ोस के बहुत से लोग शाम ढलते ही पक्के घर की छत पर अपने अपने बिछावन डाल कर कब्ज़ा कर लिया करते और देर रात तक किस्से, कहानियों, घटनाओं और गप्पों के दौर चला करते थे. उस दौरान ‘मथुरा’, या ‘मथुरा की बारी’ का जिक्र किसी न किसी बहाने रोज ही हो जाया करती.
मथुरा गाँव का एक फिक्शनल करेक्टर था और उसे गाँव का बच्चा बच्चा जानता था. लोग कहते हैं कि मथुरा जैसा, पेड़ पर चढ़ने वाला कभी पैदा नहीं हुआ. वह पलक झपकते ही पतली से पतली और ऊँची से ऊँची डाल पर बन्दर की तरह चढ़ जाया करता था. गाँव से उत्तर थोड़ी दूर पर एक बड़ा सा बाग़ था जिसमे महुआ, जामुन, पाकड़ और आम के बहुत बड़े और घने पेड़ थे. किसी साल गर्मी की दोपहर में वह महुआ तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ा तो जिन्दा वापस नहीं आया. एक ‘जवान चुड़ैल’ ने ऊपर ही उसका सारा खून चूस कर नीचे पटक दिया था. उसके बाद मथुरा भी भूत बन कर उसी बगीचे में बस गया. तभी से उस बाग़ का नाम ‘मथुरा की बारी’ पड़ गया था.
पीढ़ियाँ गुजरती गयीं और मथुरा के किस्सों में हर साल नए नए अध्याय जुड़ते गए. लोग कहते थे कि उसने उसी चुड़ैल से शादी कर ली थी. कईयों ने तो दोनों को एक साथ बगीचे से सटे पोखरे में नहाते भी देखा था. लोग यह भी कहते थे कि उन दोनों का एक बच्चा भी पैदा हुआ जो पोखरे के अन्दर रहता था. गाँव के हर आदमी के पास मथुरा का कोई न कोई किस्सा जरूर था. किसी से मथुरा के भूत ने तम्बाकू मांग कर खाया था तो किसी को ढेर सारा आम या लकड़ी तोड़ कर दिया था. कईओं ने तो मथुरा को इस पेड़ से उस पेड़ पर उड़ते भी देखा था. किसी किसी को मथुरा ने चांटा भी मारा था. कोई बताता था कि मथुरा का बच्चा भी ‘बुड़ूआ’ बन गया था. तब पानी के भूत को ‘बुड़ूआ’ कहते थे. बच्चे और कमजोर दिल वाले दिन में भी मथुरा की बारी या पोखरे की ओर जाने की हिम्मत नहीं करते थे.
‘मथुरा की बारी’ से सटे आम के बगीचों की एक कतार गावं तक चली आई थी. गर्मियों में गाँव के सारे बच्चों का दिन आम के बगीचे में बीतता था. लेकिन दिन ढलने से पहले बच्चे वापस घर भाग लिया करते थे. कोई नहीं चाहता था कि मथुरा से उसका सामना हो. मैंने मथुरा के भूत को कभी नहीं देखा लेकिन उनके स्तित्व पर संदेह भी नहीं किया. वैसे गाँव में तब शायद ही किसी को उसके स्तित्व पर संदेह रहा हो. मथुरा और उसका भुतहा परिवार न जाने कितनी पीढ़ी से गाँव का हिस्सा बने हुए थे.
आज न तो ‘मथुरा की बारी’ है और न ही उसके ‘बुड़ूआ’ बच्चे का पोखरा. बाग की जगह ईंट के भट्ठे और पक्के घरों ने ले ली है और पोखरे को गाँव वालों ने कचरे से पाट डाला है. आज गाँव में कोई बड़ा पेड़ या तालाब नहीं बचा है जहाँ मथुरा का परिवार रह सके. न जाने वे अब कहाँ होंगे ? शायद वे भट्ठे की आग में जल कर फिर मर गए होंगे, या पोखरे में कचरे के अन्दर उनका दम घुंट गया होगा. आज मथुरा को गाँव में कोई नहीं जानता. अब सबके घर पक्के हैं, हर घर में टीवी है और किसी के पास किस्से कहानियों के लिए समय नहीं है.  

मैंने मथुरा के भूत को कभी नहीं देखा. फिर भी न जाने क्यों आज उसके लिए मन उदास सा हो रहा है.
(vksrivastava)

3 May 2013






वहां सामने जो धुंआ दिख रहा है,
मुझे आदमी का निशां दिख रहा है.

     बस्ती जली है या चूल्हा जला है,
   किसी और को ये कहाँ दिख रहा है.


यहीं चीख सी इक सुनाई पड़ी थी,
 मगर ये शहर, बेजुबां दिख रहा है.


    लगी आग खुद, या लगायी गयी है,
    यहाँ हर दिया, राजदां दिख रहा है.


क्या आदमी की नयी नस्ल है ये,
लहू में सना, हर जवां दिख रहा है.

    दुआ में अभी हाथ कैसे उठायें,
    परेशान सा, आसमां दिख रहा है.

             (v.k.srivastava)

24 April 2013


एक नज़्म

मेरी दुआ में वैसे तो कोई कमी न थी
शायद ख़ुदा  को फ़िक्र ही तेरी रज़ा की थी,
जाने ख़ुदा से तुमने इबादत में क्या कहा,
सारी दुआ रकीबों की कबूल हो गयी .

लेकर मशाल - ए - आशिकी मै साथ चला था,
परवाह आँधियों का मेरे दिल में कहाँ था,
रस्ते न जाने तुमने ही क्यूँ कर बदल लिए,
और मेरे दिल की रोशनी फ़िज़ूल हो गयी .

तुम पर किसी भी बात का इलज़ाम नहीं है,
शायद वफ़ा निभाना ही आसान नहीं है,
तुमने तो निभाया है दस्तूर - ए - ज़माना,
दस्तूर - ए - मोहब्बत की मुझसे भूल हो गयी .

27 February 2013

बचपन










हाथ बढ़ा कर 
करता हूँ  
कोशिश,
जब 
चाँद को 
पकड़ने की,
हँसता है
बचपन,
मेरी नादानी पे.

खो जाता हूँ जब
भूल-भुलैया में,
तारों की,
लौटा देता है
कोई,
फिर से, 
राहों में
बचपन की.

जी करता है 
दौड़ने का,
अनायास फिर से,
देखकर  
एक बच्चे को,
भागते 
यूँ ही,
अनायास.





31 January 2013



















ओम प्रकाश चौटाला.
अजय सिंह चौटाला.
माल कमाया पिता पुत्र ने,
करके खूब घोटाला.

लालू खा के चारा.
सी-एम् बने दुबारा.
‘प्रजातंत्र’ की जय हो,
अटल बिहारी हारा.

गजब प्रभू की ‘माया’.
छक  के  नोट कमाया.
जीते जी लगवा के पत्थर,
अमर हो गयी भाया.

     बेचारे कलमाड़ी.
     ठहरे नए खिलाड़ी.
     ‘वाइड बाल’ पर आउट हो के,
     पंहुचे जेल तिहाड़ी.

18 January 2013

कृष्ण ! तुम कहाँ हो !















कृष्ण ! तुम कहाँ हो !

कृष्ण ! तुम कहाँ हो !


सत्य है पराजित,

बेवस, हे केशव !

आज फिर 'द्रोपदी' को

नोच रहे 'कौरव'.



अधम, नीच, पापी

     कर रहे शासन,

     साधु जन शोषित,

पीड़ित हैं सुजन. 


व्याप्त है सर्वत्र

अधर्म ही अधर्म,

कामना में ‘फल’ की

हो रहा कुकर्म


    स्तब्ध है ‘पार्थ’

    सशंकित हर मन

    दिये कुरुक्षेत्र में,

    क्या झूठे बचन ?


    परित्राणाय साधुनाम,

    विनाशाय च दुष्कृताम,

    धर्म संसथाप्नार्थाय,  

फिर से अवतार लो

कृष्ण ! तुम जहाँ हो !

कृष्ण ! तुम जहाँ हो !