मकान मालिक
यह कोई
कहानी नहीं है, बस यूँ ही कुछ पुरानी बातें जहन में आ गयी तो कहने
बैठ गए. हम सभी के मन में छोटी-बड़ी, अच्छी-बुरी,
खट्टी-मीठी बीते दिनों की कितनी ही यादें उथल मचाती रहती हैं, उनमे से कितनों को हम हर-एक से शेयर करते हैं. वहीँ पर कई बार बेहद छोटी सी बात भी मन को इतना उद्वेलित करती है कि लगता है इसे साझा कर लिया जाय.
जहाँ तक मुझे याद है, पिछले कुछ सालों में उस फ्लैट में करीब चार-पांच किरायेदार
रह कर जा चुके थे. बड़े शहरों की कालोनियों और फ्लैटों में कुछ ऐसा ही होता है. बहुत सारे फ्लैट में लोग बीसियों साल से रह रहे हैं,
वहीँ किसी-किसी फ्लैट में हर साल ही लोग बदल जाते है. कभी मकान
मालिक से नहीं बनी तो कभी पड़ोसी से. कभी किराये के पैसे समय से नहीं जुट पा रहे,
तो कभी किरायेदार ने अपना खुद का ही मकान खरीद लिया. पहली मंजिल वाला यह फ्लैट काफी दिनों
से खाली पड़ा था लेकिन कुछ दिन पहले ही इसमें एक परिवार शिफ्ट किया है. मैं इस ब्लॉक
में रहने वाले तकरीबन सभी छोटे-बड़ों को अच्छी तरह जानता-पहचानता हूँ. मै भी यहीं पर जन्मा और पला-बढ़ा हूँ. लेकिन पहली मंजिल वाले इस फ्लैट में आये नए लोगों से अभी ठीक से पहचान नहीं हो पायी है. दो बच्चे हैं जो सुबह स्कूल चले जाते हैं और देर दोपहर तक वापस आते हैं. आस पास के बच्चों से अभी उनकी जान-पहचान हुई नहीं है इसलिए वे शाम को नीचे खेलने भी नहीं आते हैं. हाँ,
उनकी मम्मी दिन में एक-दो बार जरूर दिख जाती हैं. कभी बच्चों को स्कूल बस तक छोड़ने-लेने,
कभी सब्जी-ठेले वालों से दो-चार
रूपये की चिकचिक करते,
तो कभी नीचे वाले फ्लैट की मैम के साथ बेतकल्लुफ बातचीत करते. मेरा उनका आमना-सामना दिन में एकाध बार हो जाता है, कभी सीढ़ियों पर तो कभी नीचे गली में. वह निरपेक्ष भाव से बगल से गुजर जाती हैं, मेरे स्तित्व से अनभिज्ञ.
कूल्हे पर अचानक लगे एक जोरदार ठोकर से भहरा कर मै तीन-चार सीढ़ी नीचे लुढ़क गया. उस वक्त मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि मेरे साथ हुआ क्या. बिना एक पल गवाएं, स्वतः
स्फूर्त उछल कर मैंने अपने को सीधा किया और सरपट नीचे की ओर दौड़ लगा दी. भागते हुये थोड़ी दूर पहुच कर वापस एक नजर डाला कि पीछे से कोई आ तो नहीं रहा. मुझे सीढ़ियों से बाहर आता एक मोटा, बेडौल सा शख्स दिखा. शायद यही ऊपर वाले फ्लैट में नया आया है ! मैंने कयास
लगाया. मैंने इसको पहले भी सीढ़ियों से आते-जाते एक दो बार देखा है, लेकिन पास से
कभी सामना नहीं हुआ था.
मै विस्मित था,
इसने मुझे लात क्यों मारी ? मै तो हमेशा की
तरह सीढियों के नीचे ठंडी फर्श पर दोपहर की नींद सो रहा था. मै कितने सालों से इसी
जगह दोपहर में घंटा-दो घंटा सोया करता हूँ. किसी ने भी आज तक मुझे इस तरह से मारा या
भगाया नहीं था. लेकिन इस शख्स से आज बेवजह मुझे लात मारी. मै हतप्रभ, एकटक उसे अपनी
ओर आते देखता रहा. थोड़ा पास आने पर मैंने देखा कि वह भी मुझे ही घूरे जा रहा है. मुझमे
इंसानी आँखों के भाव पढ़ने की कुदरती शक्ति है. उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में छद्म-अभिजात्य
मिश्रित अहंकार और मेरे लिये घृणा और तिरस्कार का भाव साफ़ दिख रहा था., उस वक्त मैंने
वहां से भाग जाने में ही अपनी भलाई समझी और दूसरे ब्लॉक की तरफ दौड़ लगा दी.
मैंने इन्ही ब्लॉक में किसी जीने के नीचे पहली बार अपनी आँख खोली थी. मुझे बच्चों का चिल्लाना और तेज
शोर याद है जब उन्होंने पहली बार मुझे कोने से बाहर झांकते हुए देखा था. वे भाग कर आये और अपनी नाजुक और कमजोर हाथों से मुझे टांग कर बाहर खींच लाये थे. उनमे से कोई एक भाग कर अपने घर गया और कटोरी भर दूध ले आया था. मैं तब शायद कुल दस-पंद्रह दिनों का ही रहा होगा. उसके बाद यह रोज का सिलसिला बन गया. बच्चे स्कूल से आते ही मुझे उठा ले जाते और गली में
यहाँ से वहां भागते.
किसी बच्चे की नाजुक हाथ में टेढ़े-मेढ़े
टंगे, मुझे कभी
इस फ्लैट तो कभी उस फ्लैट घुमाया जाता. किसी के घर में दूध पीने को मिल जाता तो किसी के घर बिस्किट. माँ मेरे भाई बहनों को लेकर कहीं और चली गयी थी या शायद भटक गयी थी. लेकिन मुझे कॉलोनी के बच्चों के रूप में एक परिवार मिल गया था. मैं दिन भर बच्चों का इंतजार करता कि वे कब बाहर खेलने आएं. मैं
उनके
साथ दूर-दूर तक दौड़ लगाता. कभी किसी बच्चे की टांग अपने छोटे से जबड़े
में पकड कर झूठ-मूठ काटने का नाटक करता. मै इन बच्चों
के लिये एक खिलौना बन गया था और बच्चे मेरा परिवार. मुझे भी इन के साथ खेलना भागना
अच्छा लगता था. कई बार बच्चे मुझे तंग भी करते थे लेकिन वह भी मुझे बुरा नहीं लगता
था. धीरे-धीरे सभी फ्लैट वालों के लिये मै उनके परिवार का हिस्सा जैसा बन गया था. ऐसे ही कितने साल बीत गए, इस कॉलोनी के लोगों के साथ रहते. मै जहाँ जी चाहे
वहां जा सकता था. छत पर, जीने में, किसी के दरवाजे के आगे घंटो सो सकता था. किसी को
भी कॉलोनी में मेरे रहने से कोई आपत्ति नहीं थी. पूरी कॉलोनी जैसे मेरी थी.
उस दिन सुबह से ही तेज बारिश हो रही थी. कॉलोनी की सड़कें, गलियां, पार्क, मंदिर का अहाता,
सब कुछ पानी-से लबालब था. कहीं पर भी लेटने या बैठने के लिये सूखी जमीन का एक टुकड़ा
तक नहीं था. जीने के नीचे का फर्श भी पानी की बौछार से गीला हुआ पड़ा था. ऊपर के मंजिल
की सीढियाँ सूखी थीं जहाँ थोड़ी देर लेटा जा सकता था. सीढ़ियों के बीच ऐसे ही एक
सूखे कोने में खुद को समेट कर कर मैने दोपहर की नीद लेने के लिये अपनी आंखें बंद
कर ली. पानी के बौछार की आवाज और ठंडी हवा की सायं-सायं के बीच न जाने
कब हल्की सी नींद आ गयी.
भारी पैरों और जूतों की खट-खट से
ऑंखें स्वभावगत थोड़ी खुली तो देखा कि वही बेडौल शख्स सीढ़ियों से ऊपर चढ़ा आ रहा है.
पिछले अनुभव से सशंकित,
शरीर की मांसपेशियों ने एक पल में ही सिकुड़ कर किसी अनपेक्षित क्रिया की प्रतिक्रिया
के लिये अपने को तैयार किया. लेकिन उसकी फुर्ती मेरी प्रतिक्रिया से जयादा तेज निकली.
पलक झपकते ही उसने पीठ पर फिर एक लात मारी और मेरे०. मांसपेशियों की सारी तैयारी
धरी रह गयी. लेकिन इसके पहले कि उसका दूसरा लात उठता, मै छलांग लगा कर
ऊपर जाने वाली सीढियों से छत की ओर तेजी से भागा. घंटी की आवाज और दरवाजे
की खटर-पटर से मुझे पता चल गया कि वह शख्स पहली मंजिल वाले फ्लैट में घुसा है.
अच्छा ! तो यह पहली मंजिल वाले फ्लैट में रहता है ! मै मन ही मन बुदबुदाया. पिछले दो-तीन दिनों के भीतर इसने मुझे दूसरी बार लात मारी थी. मै हैरान और दुखी था, क्योंकि मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. मै यहाँ न जाने कितने
सालों से रह रहा था. मै इस कॉलोनी और यहाँ रहने वाले
हर एक परिवार के सदस्य जैसा था और सब लोग मुझे सहन करते थे. लेकिन इस नये शख्स को मै न जाने क्यों नापसंद था.
हम दोनों के बीच अब यह रोज का सिलसिला बन गया. मुझे बैठे-सोते या सड़क पर देखते ही वह मुझे दौड़ा लिया करता. कई बार उसने मेरे
ऊपर पत्थर और डंडे भी चलाये. उसकी
नजरों में मेरे लिये बहुत नफरत थी. मैंने कई बार उसे चिल्लाते हुये सुना था, 'मैंने इतना मंहगा
फ्लैट खरीदा है, इस
आवारा कुत्ते को अपने ब्लॉक में नहीं रहने दूंगा. ये सड़क के कुत्ते कई सारी बिमारियों की जड़ हैं, इसको इस ब्लॉक और कॉलोनी से निकालना ही होगा". उसके घर में मुझे लेकर अक्सर
बहस होता था और तेज-तेज आवाजें
आती थी. हम दोनों के बीच यह सिलसिला महीनों या सालों तक चलता रहा. न तो उसने मुझे लतियाना छोड़ा और न ही मैंने उसकी सीढ़ियों पे सोना. शुरू शुरू में तो उसके लात मुझे लग जाया करते थे लेकिन बाद में मैंने उससे बचना सीख लिया. मुझे उसके आने -जाने के समय का अंदाजा हो चुका था. मै उसके पैरों की चाल और खट-खट से दूर से ही उसके आने की आहट पा जाता था. सच बताएं तो उसको चिढ़ाने में मुझे थोड़ा मजा आने लगा था. मै कई बार सीढियों पर बैठा
उसका इंतजार करता या जान
बूझ कर उसके पास से गुजरता. उसका लात उठने से मै पहले सरपट भाग लेता. कॉलोनी के बच्चे
काफी पहले मेरे साथ खेलना-भागना छोड़ चुके थे, इसकी
वजह से थोड़ी दौड़ लग जाया करती थी.
आज उसके फ्लैट के नीचे बहुत भीड़ लगी है. उसके घर का सारा सामान नीचे बेतरतीब रखा
हुआ है. बेड, गद्दे, सोफा, टीवी, मेज, कपड़े, बर्तन आदि, सब कुछ. एक ट्रक भी पास में
खड़ा है. कुछ मजदूर एक एक करके घर का सामान ट्रक में लाद रहे है. पड़ोस के कुछ लोग बातें
कर रहें हैं ! “कई महीनों से इसने फ्लैट के कर्ज की किस्तें जमा नही की थी इसलिए आज
बैंक ने इससे घर खाली करा लिया.
जीने के पास होठों को दांतों से चबाते, गुमसुम सा खड़ा वह सख्स अपना सामान ट्रक
में लदते देख रहा है. कभी कभी वह मजदूरों के उपर चिल्ला पड़ता है. अरे भाई ! आराम से
उठाओ, टूटने वाला सामान है ! मै आदतन धीरे धीरे उसके पास सरकता जाता हूँ. अब मै उसके
बहुत पास तक पंहुच गया हूँ, ‘खतरे के निशान’ तक. उसने तीखी आँखों से मेरे ऊपर एक नजर
डाली और इधर मेरी मांसपेशियों ने अपने को सख्त किया. हम दोनों ऐसे ही कुछ पल अटके रहे.
लेकिन अगले ही पल उसने अपनी नजर मुझ से हटा कर मजदूरों की तरफ कर दी.
अबे सा....! तुम्हे सुनाई नहीं देता क्या ! कितनी बार बोल दिया, आराम से उठाओ
! तुम्हे पता है, कितना मंहगा टीवी है ये ! और वह फुर्ती से मजदूरों की तरफ लपक लिया.
~विनोद कुमार श्रीवास्तव,
रोहिणी, नई दिल्ली, 22 सितम्बर 2024