मेरे गाँव के चोकट बाबा जो वहां के पोस्टमैन भी थे, शाम को अक्सर मेरे घर आ जाया करते थे। गाँव के और भी बड़े बुजुर्गों की जमघट लगती थी। वहीं पर टीमल यादव की भैंस के खेत चर लेने से लेकर लेबनान की समस्या तक डिस्कस होती थी। हम बच्चों को उन बातों में बड़ा मजा आता था और जानकारियां (?) भी बढ़ती थी। लेकिन चोकट बाबा की बात और थी। वे रोज कुछ नई चीज सुनाते थे जो मजेदार के साथ साथ कई बार शिक्षाप्रद भी होती थी। उनके सुनाये एक प्रसंग का जिक्र यहाँ सामयिक है। प्रसंग का भोजपुरी में ही प्रस्तुतीकरण उसके मर्म तक पहुचना सुगम बनाता है ।
दृश्य १: एक पिता अपने एक - डेढ़ साल के बच्चे को गोद में खिला रहा है और उसका बच्चा एक कौए को देख कर पूछता है:
"दादा इ का है ?
बेटा कौवा है।
आं ?
बेटा कौवा है।
आं ?
कौवा है।
आं ?
कौवा है बेटा ।
.....
.............
......"
दृश्य २ : करीब तीस पैतीस साल बाद : बूढा पिता बाहर ओसारे में पुआल पर गुदडी ओढे सिकुडा हुआ है। तभी बेटे के ससुराल से कुछ मेहमान आते हैं और सीधे घर के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। पिता मेहमान के बारे में स्वभावगत जिज्ञासा वस बेटे से पूछता है :
"बेटा के रहल हवे ? ( बेटा कौन था?)
केहू नाइ । ( कोई नही)
नाही ! केहू अन्दर गइल हवे। ( नही, कोई अंदर गया है)
का बकबक बकबक कइले रहलअ । अपने काम से काम रखअ "
और पिता चुपचाप अपनी गुदडी में और सिकुड़ लेता है।
इस कहानी का मर्म समझाने की आवश्यकता नही है क्योंकि लगभग हर घर की यही कहानी है। इस संवेदना हीन समाज में बेटे से इससे ज्यादा 'रहम' की उम्मीद नही की जा सकती है। यह विडम्बना है कि सारी जवानी बेटों को जवान करने में लुटा देने के बाद जब ख़ुद की आँखे, शरीर, हड्डियाँ और दिमाग साथ छोड़ने लगते हैं तभी अपने ही शरीर का अंश बेटा भी मुंह फेर लेता है। उस वक्त जब परिवार के देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी कोई आँख उठा कर देखने वाला नही होता है। एक बाप तीन - तीन चार - चार बच्चों को पचीस सालों तक पाल पोस कर बड़ा करता है लेकिन तीन - तीन चार - चार बच्चे मिल कर एक माँ बाप को कुछ साल नही पाल सकते।
2 comments:
एकदम सही है।
लगभग हर में यह कहानी दोहराई जाती है,जा रही है।
बहुत दुखद है लेकिन आज भी उतना ही सच है जितना तब था जब आपने चोकट बाबा के मुंह से सुना था.
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