12 April 2020

इंदरिया


इंदरिया

हमारी धरती का जीवन एक विशाल मंच पर स्वत: मंचित नाटक की तरह अनादि काल से जारी है. इस नाटक के अनंत पात्र स्वयं के लिये नियत भूमिका में निरंतर अभिनयरत हैं. कोई मुट्ठी भर लोग अत्यंत महत्वपूर्ण, तो अन्य अनगिनत लोग बेहद सामान्य या तुच्छ सी भूमिका में. एक विशालतम कथानक के भीतर अनगिनत उप कथाएं भी मंचित हो रही हैं और प्रत्येक  पात्र उनमे अपना अपना किरदार अदा कर रहा है. जो महत्वपूर्ण भूमिका में हैं वो तो जन स्मृति में लम्बे समय तक रह जाते हैं लेकिन सामान्य पात्रों को जल्दी ही विस्मृत कर दिया जाता है. तदुपरांत  एक नयी उपकथा नये किरदारों को जन्म देती है  और यह सिलसिला जारी रहता है.
इंदरिया गांव के तुच्छतम पात्रों में से ही कोई एक थी. इतनी, कि गांव में किसी को आज उसका स्तित्व या नाम तक याद नहीं, शायद उसके बूढ़े हो रहे भाई को भी नहीं. उसका नाम इंदरिया था नहीं लेकिन उसको सब लोग इंदरिया के नाम से ही बुलाते थे.  शायद उसका असली नाम इंद्रा, इन्दिरा, इंद्रावती या ऐसा ही कुछ रहा होगा. उसके माँ बाप गंवार थे लेकिन अपनी बेटी का नाम इंदरिया तो नहीं रखा होगा. गावों  में ऐसे ही चलता है. आठ दस साल के होते होते राम लखन का नाम "लखना",  शिवकुमार का "शिवकुमरा" और इंद्रावती का नाम इंदरिया जैसा  ही कुछ  हो जाता है.
बिलकुल  ठीक तो नहीं, लेकिन मेरी स्मृति में उसकी जो छवि है उसके हिसाब से वह करीब चौदह - पंद्रह साल की रही होगी. शरीर इतना दुबला पतला, कि बिजली के खम्भे के पीछे खड़े होने पर मुश्किल से नजर आती थी. लाला के नल से पानी की बाल्टी ढोते ढोते उसकी कुपोषित कमर धनुष की चाप जैसी टेढ़ी हो चली थी. उसकी दिनचर्या सुबह कब शुरू होती थी यह तो पता नहीं, लेकिन स्कूल जाते समय मुझे अक्सर वह गोबर की टोकरी लिए घूरे की तरफ जाती दिख जाती थी. शाम को भी स्कूल से लौटते समय वह अपनी मरियल सी गाय और चमकती आँखों वाले छोटे से बछड़े को सानी-पानी करती मिलती थी. उसकी माँ पता नहीं कब की मर चुकी थी. घर में एक गंजेड़ी भाई और बूढ़ा बाप, बस तीन लोग थे. कभी उसकी भाभी भी साथ थी लेकिन पति के नशे की आदत और रोज रोज की लड़ाई से तंग आकर वह इन्हे पहले ही छोड़ कर जा चुकी थी.  कुछ सालों पहले मशीन में फंस जाने से बाप का एक पैर कट गया था और अब वह  एक छोटी सी गुमटी लगा कर चूरन, टाफी, दालमोठ, गुटके, तम्बाकू, बीड़ी, साबुन वगैरह बेचता था. मरियल गाय के लिये चारा लाने, चूल्हे के लिये जलावन बीनने, खाना बनाने, पीने के लिये पानी ढोने, घर की सफाई आदि की जिम्मेदारी इंदरिया की थी. छोटी मोटी बात पर इंदरिया को पीट कर या बूढ़े बाप को गरिया कर बड़ा भाई भी कभी कभी अपनी जिम्मेदारी निभा लिया करता था. कुल मिला कर सब 'ठीक ठाक'  ही चल रहा था. मैं "दारिद्र्य चित्रण" की वैशाखी से उसके लिये सहानुभूति अर्जित नहीं कर रहा हूँ. उन दिनों के हिसाब से गावों के अधिकांश परवारों के लिये यह कोई बहुत असामान्य जिंदगी नहीं थी.        
उस दिन मैंने पहली बार उसे दौड़ लगाते देखा. गावों में लड़कियों के दौड़ने, भागने, खेलने, कूदने को उन दिनों कहाँ अच्छा माना जाता था? गाय का बछड़ा आज रस्सी छुड़ा कर गली में इधर उधर कुलाचें मार रहा था. अपने हाथ फैला कर बछड़े को घेरने और पतली सी छड़ी से उसे डराने की बेमन से कोशिश करती वह कोई और ही इंदरिया थी. आज मुझे उसकी आँखों में चमक और कुलांचे मार कर दौड़ने की बछड़े से भी कहीं ज्यादा ललक दिखाई दे रही थी. उसने बछड़े को अपने बगल से निकल जाने दिया और पीछे से लपक पड़ी, उसे फिर से  पकड़ने के लिये.  अभाव और जिंदगी की जद्दोजहद, व्यक्ति से उसकी स्वभाविकता छीन लेते हैं. उसका कैशोर्य भी अभाव और जिंदगी की जद्दोजहद से संवेदना विहीन और सुस्त पड़ा था. आज बछड़े ने उसको जिंदगी के एक नये आयाम से परिचित कराया था, दौड़ कर कुछ पकड़ लेने या पा लेने की कोशिश और फिर सफलता से प्राप्त संतोष का आयाम. अब तो रोज शाम को बछड़ा रस्सी छुड़ा के भागने लगा था और पीछे पीछे छड़ी लिये इंदरिया भी. एक दूसरे के आगे पीछे भागते दोनों की आँखों में गजब की चमक थी.  
कुछ दिनों से रोज शाम को उसके घर के सामने ताशा बजा करता है. उसका कच्चा घर गोबर और मिट्टी से लिप पुत कर चमक रहा है. लंगड़ा  बाप पीली धोती और सफ़ेद कुरता डाल कर इधर उधर भाग रहा है. उसने अपने लिये एक नयी बैशाखी भी खरीदी है. आज इंदरिया का गौना आ रहा है, कल वह अपने ससुराल चली जाएगी.  उसके दरवाजे पर आठ-दस चारपाइयाँ,  तह लगे कुछ पुराने गद्दे, चद्दर और लकड़ी की कुछ कुर्सियां रखी हुई हैं. इन्हे गांव के अलग अलग घरों से रात भर के लिये लाया गया है. गांव में किसी के भी घर शादी, गौना या मेहमान आने पर लोग अलग अलग घरों से बर्तन, चारपाई, बिस्तर आदि माँग कर लाते हैं. गावों में ऐसे ही काम चलता है.   
आज कई दिनों के बाद इंदरिया नजर आयी, हल्दी के लेप से निखरे चेहरे पर थोड़ी शर्म लेकिन बछड़े की आँखों वाली वही चमक लिये. आज वह मेरे घर पर आयी थी, चाचियों-दादियों से आखिरी बार मिलने के लिये. जाते जाते सकुचाते हुये बोल पड़ी, "चाची एक बढ़िया सा गद्दा और नया चद्दर हो तो दे दो, आज-आज के लिये ! क्या है, कि गांव से मांग कर भाई जो गद्दे-चद्दर लाया है वो सारे के सारे गंदे और फटे हैं. एक गद्दा-चद्दर चाहिये 'उनके' बिस्तरे के लिये.  
इंदरिया की डोली उठ चुकी है. मेरे घर से आया गद्दा-चद्दर करीने  से लपेट कर एक चारपाई के कोने रखा हुआ है.  उसके रोने की आवाज पूरे टोले में गूँज रही है. कुछ औरतें और बच्चे झुण्ड बना कर डोली निकलती देख रहे हैं. औरतें चावल, बतासे और दस-पाँच पैसे के सिक्के भी डोली पर उछाल रही हैं. कल तक जिसके अस्तित्व से गांव में किसी को भी मतलब नहीं था उस की डोली ने कुछ देर के लिये ही सही लेकिन कुतूहल सा पैदा कर दिया है. इंदरिया ने डोली का परदा हटा कर आखिरी बार अपने घर की एक झलक देखी, फिर उसकी नजर पास में खड़ी औरतों के झुण्ड की तरफ उठ गयी. उसकी गीली आँखों में बछड़े की आँखों से भी ज्यादा चमक दिख रही है.
इंदरिया की 'उपकथा' कम शशक्त नहीं थी और न ही उसका किरदार तुच्छ था. उसने अपने हिस्से के पात्र को ईमानदारी और स्वभाविकता से निभाया था. अनेक 'महत्वपूर्ण' लोगों की अपक्षा कहीं ज्यादा स्वभाविकता और ईमानदारी से.

24 November 2014

बादशाह

कुकडू..उू...उू...उू...उू..कू ..उू...उू.

किसी अनजान आशंका वश सारी मुर्गियों की नज़रें इस आवाज की तरफ उठ गयी. आज पीली कलगी वाले ने उसे चुनौती देने का दुस्साहस किया था. दड़बे मे घमासान होने का फिर माहौल बन रहा था

बड़ी सी लाल कलगी लहराते हुये अपनी छाती फुला कर उसने भी तेज बांग लगायी. देखते ही देखते दड़बे मे शोरगुल और अफरा तफरी मच गयी. दोनों मुर्गों ने पंख फडफडा कर एक दूसरे को चोंच मारना शुरू किया. लेकिन लाल कलगी वाले के सामने कोई मुर्गा भला कितनी देर टिकता. उसने पीली कलगी वाले को अपनी चोंच मे जकड कर दड़बे के छोर तक धकेल डाला. लहूलुहान पीली कलगी वाला किसी तरह उसकी चोंच से छूट कर अपनी जान बचा कर भागा.    

लाल कलगी वाला मुर्गा उस दड़बे का सबसे तगड़ा मुर्गा था. उसे चुनौती देने का साहस किसी मुर्गे मे नहीं था. अगर किसी ने उसके सामने आने की कोशिश की भी थी तो उसने अपनी खाल ही नुचवायी थी

नुकीले पंजों से दड़बे की सतह को खरोंचते हुए उसने चारो ओर विजयी नज़र दौडाई. दड़बे के सारे मुर्गे सहम कर एक कोने में दुबक लिएमुर्गियों ने भी दानें चुगना छोड़ कर सहमी नजरों से उसे घूरना शुरू कर दियापीली कलगी वाले ने मुर्गियों के पीछे पनाह ली. थोड़ी देर की उथल पथल के बाद दड़बे में फिर से शांति हो गयीदड़बे में  रोज एकाध बार इसी तरह प्रभुता और सामर्थ्य का प्रदर्शन चलता रहता था. लेकिन लाल कलगी वाला ही वहाँ का बादशाह था.

आज  काफी उथल पुथल मची हुई थी. चुन चुन कर हट्टे-कट्ठे मुर्गे - मुर्गियों को अलग किया जा रहा था. थोड़ी देर बाद चुने हुए बीस पचीस मुर्गे मुर्गियों के झुंड के साथ उसे भी शहर रवाना कर दिया गयाबांस के टोकरे में हिलने डुलने तक की गुंजाईस नहीं थी. छोटी सी तंग जगह में ठुसे जाने के कारण अपने अधीन 'प्रजा' के बीच आज वह हतप्रभ और अपमानित नज़र रहा था. उसने अपने पास ठुसे पीली कलगी वाले को घृणा से देखते हुए तेज़ चोंच मारी. छटपटा कर वह पीछे की ओर दुबका तो दूसरा अनजाने में उसके पास गयाशहर तक दो घंटे की यात्रा में टोकरी के लगभग सारे मुर्गे उसकी 'चोंच' खा चुके थे.
शहर का यह इलाका बहुत शोरगुल वाला था. चारो ओर अनगिनत टोकरियों मे हजारों मुर्गे भरे पड़े थे. उसने अपनी चोंच उठा कर नयी जगह का निरीक्षण किया. यहाँ भी उसे किसी मुर्गे की कलगी और छाती अपने से बड़ी नज़र नहीं आई. नये इलाके मे अपनी श्रेष्ठता का आभास होते ही उसने छाती फुला कर फिर से तेज बांग लगायी

कुकडू..उू...उू...उू...उू..कू ..उू...उू. 

तेज बांग की आवाज से आकर्षित एक साथ कई नज़रें उसके टोकरे की तरफ उठ गयी. एक अमीर से आदमी ने उसके मालिक को इशारा किया. अगले ही पल उसे टोकरे मे से खींच कर पिछवाडे की तरफ भेज दिया गयाथोडी देर की छटपटाहट के बाद टोकरे मे शान्ति छा गयी.

पीली कलगी वाले ने इधर उधर नज़र फेरी. लाल कलगी वाला कहीं नज़र नहीं आया. थोडा आश्वश्त होने के बाद उसने अपने पंख फडफडाये और आसपास के मुर्गों पर चोंच मारते हुये टोकरे मे अपने लिये और जगह बनायी. फिर छाती फुला कर उसने बांग लगायी.
कुकडू..उू...उू...उू..कू..उू...उू.

कोई उसके सामने नहीं आया. आज उसका कोई प्रतिद्वंदी नहीं थाकिसी मुर्गे मे उससे टकराने का साहस नहीं था.
वहां का बादशाह अब पीली कलगी वाला था