8 January 2013


भेड़िया












खुदा भी आसमां से जब जमीं पर देखता होगा.
भला इन मनचलों को क्यूँ बनाया, सोचता होगा.
निकलता है जो हर सुबह, अपनी माँ के आंचल से,  
वही दिन में, ‘किसी की माँ’ का आंचल खीचता होगा.
कलाई में बंधा कर राखियाँ, वो अपनी बहनों से,
कलाई और बहनों की, फक्र से खीचता होगा.
हवस से देखता है, जो, गैरों की बेटियों को,
खुदा जाने, वो खुद की बेटियों का, क्या पिता होगा.
नजर आती है जिसको ‘जिस्म’ हर एक औरत में,
वो क्या इंसा,  महज वो ‘भेड़िया’ होगा.  


No comments: