5 January 2009

सोन मछरी

नेपाल के तराई इलाके में एक लोक कथा " सोन मछरी " प्रचलित है और उस पर कई लोक गीत भी गाये जाते हैं. श्री हरिवंश राय बच्चन जी ने भी उसी कथा पर आधारित एक कविता लिखी है. उस कथा का सारांश कुछ इस तरह से है.
सोन नदी के किनारे एक गाँव में मछुआरे का एक परिवार बहुत प्रेम से रहता था . मछुआरा रोज मछली पकड़ने जाता था और ढेर सारी मछलियाँ बेच कर खूब पैसे कमाता था. मछुआरे और उसकी पत्नी का जीवन बड़े आनंद में कट रहा था.
एक रात पत्नी ने प्रश्न किया कि तुम इतने बड़े मछुआरे हो तो मेरे लिए "सोन मछरी" पकड़ कर क्यों नहीं लाते ?
मछुआरा चौंका ! अरे तुम्हे 'सोन मछरी' की क्या जरूरत है ? और 'सोन मछरी' कोई सच्ची थोड़े ही होती है. वो तो किस्से कहानियो की बातें है.
लेकिन मछुआरिन अड़ गयी कि उसे 'सोन मछरी' चाहिए ही चाहिए . उसने खाना पीना छोड़ दिया.
स्त्री हठ के आगे मछुआरे को झुकना पड़ा और वह कई दिन का खाने पीने का सामान ले कर 'सोन मछरी' पकड़ने चल दिया.
मछुआरा अगले कई महीनो तक घर नहीं लौटा और उसकी पत्नी उसकी राह देखती रही.
एक दिन गाँव में शोर हुआ कि मछुआरा लौट आया . पत्नी नदी तट की ओर दौडी. उसने देखा कि मछुआरे के साथ एक बहुत सुंदर युवती भी है.
उसने पूछा कि यह कौन है?
मछुआरे ने जबाब दिया " यही तो सोन मछरी है. इसे बहुत दूर से पकड के लाया हूँ और अब यह अपने साथ ही रहेगी.
मछुआरिन को सारा माज़रा समझ में आ गया लेकिन उसके पास अब पछताने के शिवा कोई चारा नहीं था.
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कहानी का निष्कर्ष बहुत साधारण है लेकिन क्या हममे से कोई उस मछुआरिन से अलग है ? वह तो भोली औरअनपढ़ थी और "सोन मछरी" के लालच में सौतन बुला बैठी लेकिन क्या पढ़े लिखे और विद्वान लोग भी "सोनमछरी" के लालच से अछूते हैं ? क्या महलों की रानी सीता भी "स्वर्ण मृग" के लोभ में नहीं गई थी.
हम सब अपने सुखी वर्तमान से संतुष्ट नही रह पाते और, ज्यादा -और- ज्यादा, के जाल में उलझते जाते हैं. इसजाल की फाँस अधिकतर मामलों में त्रादश ही होती है. लेकिन लगता है कि इसमे फँसना ही मानव की नियति है.

2 comments:

नीरज मुसाफ़िर said...

विनोद जी,
ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है.

सागर नाहर said...

जब सीता मैया भी स्वर्ण मृग के मोह से नहीं बच पाई तो हम इन्सानों की तो क्या हैसियत?
हर आदमी लगा है किसी ना किसी सोन मछरी की तलाश में..... बस वह सोन मछरी रूप बदलती रहती है।
मजेदार लेख।