10 April 2009

लकडियाँ

स्कूल का बस्ता पीठ से उतार कर उसने अपने सीने से चिपकाया और लम्बे कदमो के साथ घर की ओर लपका . तेज़ गड़गडाहट के साथ बारिस के बूंदों की टिप टिप शुरू हो चुकी थी. जुलाई महीने का दूसरा सप्ताह था लेकिन बादल पिछले दो पखवाड़े से लुकाछिपी खेल रहे थे. मानसून की असली आहट अब सुनाई पड़ रही थी. पिछले कई दिनों से बादलों ने आसमान में घनी चादर तान रखी थी लेकिन बारिस नदारद थी. इस इलाके में मानसून बड़ी जालिम शक्ल दिखाती है. या तो इतना लम्बा सूखा पड़ता है कि धरती चटक जाय या इतनी ज्यादा बारिस होती है कि खेत के खेत बह जाय. आजकल स्कूल से निकलते वक्त वह अपनी नयी किताबों और कापियों को पोलिथीन में लपेट कर ही बस्ते में रखता था, क्या पता रास्ते में ही बारिस शुरू हो ले. इस साल भी शासन की ओर से उसको मुफ्त किताबें और कापियां स्कूल खुलते ही मिल गयी थी. उसके माँ बाप की हैसियत तो दो चार रूपये की फीस भरने की भी नहीं थी वे इतनी महँगी किताबें कहाँ खरीद पाते. उसका बीमार बाप कभी का स्कूल छुड़वा चुका होता लेकिन माँ के अड़ जाने के वजह से ही वह अभी तक पढ़ रहा था. कक्षा छः और सात दोनों ही में उसने सबसे ज्यादा नंबर पाए थे. हेड मास्टर साहेब ने बोला था कि अगर वह आठवीं में भी अव्वल रहा तो अगले चार सालों तक उसका फीस माफ़ रहेगा और हर महीने कुछ वजीफा भी मिलेगा. उसने ठान रखा था कि इस साल भी सबसे ज्यादा नंबर ला कर ही रहेगा. फिलहाल तो वह अपने किताबों की जागीर को सीने से चिपटाए घर की ओर भागा जा रहा था. पानी में लथपथ, घर पहुचते पहुचते वह बुरी तरह हांफ रहा था लेकिन उसके चेहरे पर एक संतोष का भाव था, अपने बस्ते को भीगने से जो बचा लिया था.
आज लगातार पाँचवे दिन भी वह स्कूल नहीं जा पाया. इतनी जबरदस्त बारिस उसने कभी नहीं देखी थी. इन पांच दिनों में पल भर के लिए भी बारिस रुकी नहीं थी. चारो ओर पानी ही पानी था. गाँव के कुओं का पानी ऊपर तक आ गया था. घर में आटा चावल तो था लेकिन उनको पकाने के लिए सूखी लकडियाँ कहाँ से आये? उसकी माँ के पाथे उपले सिल कर बिखर गए थे. दो चार टहनियां घर में पड़ी थी उन्ही पर केरोसिन उडेल उडेल कर किसी तरह दो तीन दिन रोटियां सिकी थीं. पिछले दो दिनों से उसका परिवार सत्तू खाकर पेट भर रहा था. वह तो किसी तरह सत्तू हलक से नीचे उतार ले रहा था लेकिन उसके सात साल और तीन साल के छोटे भाई बहनों से सत्तू नहीं खाया जा रहा था. भाई ने आज रो रो कर बुरा हाल कर लिया था जिसपर बापू ने उसकी पिटाई भी कर दी थी. माँ से देखा नहीं गया तो वह लाला के घर से थोडा बासी चावल मांग कर लायी थी. दोनों भाई बहन टूट पड़े थे उसपर . छोटी फिर भी भूखी रह गयी थी. आज रात के खाने का क्या होगा?
पिटने के बाद से ही भाई सत्तू देखकर रोया नहीं है लेकिन अब तो बापू से भी सत्तू नहीं खाया जा रहा है. बीमारी में खाना छूटना ठीक नहीं है. बहन भी सुस्त पड़ी सो रही है. दिया जलाने के लिए जरा सा तेल बचा है.
हे भगवान ! बहुत हो लिया, बंद करो ना बारिस अब !
सुनो ! छप्पर में से थोडा सरपत ( घास ) और एकाध बांस खीच लो. एक वक्त की रोटी सिक जायेगी, बारिस रुकने पर फिर छत ठीक कर लेंगे. अँधेरे कोने में से आती बापू की आवाज पर माँ चौंकी.
क्या कह रहे हो? हर जगह से पानी रिस रहा है. बांस भी गल कर नरम हुआ पड़ा है. एकाध बांस निकलते ही कहीं पूरा छप्पर नीचे ना आ पड़े. माँ बोली.
"देखो बहुत भूख लगी है. सत्तू देख कर अब उलटी आ रही है. कहीं से करो लकडी की व्यवस्था. कुछ नहीं होगा छप्पर को, निकाल लो उसमे से एक बांस".
चटाई पर लेटे लेटे उसने देखा कि माँ उठी और छप्पर के एक कोने से बांस खीचने का यत्न करने लगी है.
बिजली की कर्कश गड़गडाहट के साथ तेज़ चमक उठी . छणिक रौशनी में उसे फूस की छत में से आसमान के कई टुकडे झांकते हुए नजर आए. पिछली कई रातों से आसमान के इन टुकड़ों को देख देख कर उसे उनकी शक्लें याद हो चुकी हैं . आज उसे ए टुकड़े कुछ ज्यादा ही बड़े और भयानक दिखाई दे रहे हैं. 'अजीबो गरीब शक्लों वाले' आसमान के भयानक टुकड़े ! सारे के सारे उसे और उसके परिवार की ओर लपकते हुए ! उसे लगा कि सारा छप्पर गिरने वाला है. वह घबरा कर उठ बैठा .
माँ ! रुको ! मत निकालो उसे ! मै देता हूँ तुम्हे रोटी बनाने के लिए कुछ. वह अपने बस्ते तक गया और दो तीन किताबें निकाल कर माँ के हाथ में रख दिया. माँ इससे बड़ी अच्छी रोटिया सिकेंगी. लो जला लो इन्हें.
बापू , छोटा भाई और बहन, सब उठ कर बैठ गए. उन सब के आँखों में आसमान से भी ज्यादा चमक दिखाई दे रही थी.

विनोद कुमार श्रीवास्तव

3 comments:

सागर नाहर said...

ओह, इतनी बेबसी।
दिल को छू गई यह कहानी।

BrijmohanShrivastava said...

प्रिय श्रीवास्तव जी /बहुत दर्द भर दिया रचना में साथ ही पेट और विद्या का महत्त्व भी बतला दिया अपन तो इतना ग्रामीण क्षेत्र से परिचित नहीं है शायद आपकी यह रचना किसी की वास्तविकता लिए भी हो सकती है

Vijay Kumar said...

कहानी वास्तविकता से अधिक दूर नहीं है . साहित्य केवल आत्मकथाओं से ही सम्बन्ध नहीं रखता ,वह मनुष्य की संवेदनाओं की व्यापकता और विस्तार के स्वप्न जगत के सार्थक पहलुओं को भी प्रकाशित करता है .वह संभावनाओ के द्वंद्व का भी लेख है .इस कहानी में भी बच्चा बचे रहने के अंतिम उपाय आजमाना चाहता है .उसकी किताबें ज्ञान से भरी हैं और कॉपियाँ कोरी रही होंगी किन्तु वह ज्ञान और उद्यम में कोरा नहीं है.लेखक ने जिस बिंदु पर कहानी समाप्त की है उससे जाहिर होता है कि वह भी स्तब्ध है इस विचित्र किन्तु बालसुलभ,दीन्सुलभ निर्णय पर . जीवन कीआपात स्थितियों में तर्क से परे लिए गए निर्णयों से इतिहास और साहित्य रंगा पड़ा है.