13 January 2009

भोर

झिलमिल सितारों से भरी,
आकाशगंगा की परी,
लहरा के आँचल चल पड़ी,
नाज़ुक, लचकती बल्लरी,

मखमल सी कोमल चाँदनी,

कलकल, नदी की रागिनी,
बंसी की मादक तान,
जैसे भैरवी, शिवरंजिनी,

पायल में छमछम सी खनक,

आंखों में जुगनू की चमक,
शीतल पवन यूँ मंद-मंद,
सासों में फूलों की महक,

'प्रियतम' बड़ा बेकल अधीर,

उस छोर झांके नभ को चीर,
सदियों से लम्बी हर घड़ी,
'क्यूँ चल रही धीरे, अरी'?

बेला मिलन की आसपास,

चहु ओर लाली की उजास,
आलिंगनबद्ध 'निशा-भोर'
धरती को नवजीवन की आस।

9 January 2009

तूं मुझे खुजा मै तुझे खुजाऊं

आज पीठ में बहुत खुजली हो रही है और वह भी ऐसी जगह जहाँ तक येढे, मेढे, टेढे, कैसे भी होकर हाथ पहुच ही नही रहा. वैसे खुजली तो कहीं पर भी हो सकती है मसलन सर, आँख, नाक, कान, गला, सीना, पेट, कमर .......आदि. मगर हाथों में खुजली होने पर विशेष आनंद आता है. एक तो खुजलाते वक्त खुजलाहट' का आनंद और दूजा कुछ ''ऊपरी नगद नारायण'' की प्राप्ति होने की आशा का आनंद.
एक दिन एक दरोगा जी को हवालदार से कहते सुना : अरे मिश्रा जी, आज हाथ में बड़ी खुजली हो रही है, काफी दिन से हाथ साफ नही किया, किसी को पकड़ते जरा. मिश्रा जी बोले : अरे साहेब ! अभिये लीजिये, आने दीजिये किसी ठेला-रिक्शा वाले को. मैंने सोचा कि लगता है दरोगा जी कई दिन से नहाये नही हैं और रिक्शा वाले से रगड़वा-रगड़वा कर ' काई छुड़वाएंगे. फ़िर आगे कुछ सोचा ही नही। पुलिस वाले का क्या ? नहाये या नहाये या बदबू मारे, उनसे सटने ही कौन जाता है. और फ़िर रात दिन चोर उचक्कों का साथ, हाथ में 'काई' तो जमती ही है।
खैर थोडी देर में एक कबाडी वाला हांक लगाता हुआ गुजरा. हवालदार ने बेंत लपलपा कर रोका उसे.
अबे रुक ! क्या है बे ? चोरी का माल बेंचता है स्साले?
नही साब ! खाली रद्दी का अख़बार है, अउरो कुछ नही है.
स्साले ! चोट्टे ! चल निकाल बीस रूपये.
अरे साब, बीस रूपये कहाँ से दूँ ? जितना था सब का रद्दी खरीद लिया, यही तीन रुपया बचा है.
हरामी साले जबान लडाता है ? और तीन रूपये अपने जेब के हवाले कर हवालदार उसे दरोगा जी के पास ले गया.
साहेब ! बिना 'परमिट' के कबाडी का काम कर रहा है साला अपने हलके में.
अच्छा ? क्यों बे ! पर्ची कटवाई चौकी पे ?
नाही माई बाप, पर्ची का है ? हम नए-नए काम शुरू किए हैं, हमें कुछ मालूम नाही है साब !
मिश्रा ! जरा बेतवा दीजियेगा ! ससुरे को पर्ची बतावें क्या होता है.
और उसके बाद ! सटाक - सटाक, चट-चट, धम-धम - - - - - . चल रख सारी रद्दी यहीं ! भाग यहाँ से !
कबाडी के जाने के बाद दरोगा जी ने कृतग्य भावः से मिश्रा जी को देखा. मिश्रा ! बहुत दिन बाद ससुरा हाथ साफ करने को मिला . लेकिन साले का चमड़ी नरम नही था, सोटे का निशान तो पड़बे नही किया. अरे हाँ ! रद्दिया लेते जाव. आज के तरकारी के जुगाड़ हुआ .
मिश्रा जी रद्दी समेटते हुए बोले, कौन पछताने की बात है साहेब, नरम चमड़ी वाले को पकड़ लाते हैं, एक बार फ़िर हाथ साफ़ कर लीजिये.
और इससे पहले मिश्रा जी के खोजी नयन मेरी ओर पड़ें, मै वहां से भागा.
भाइयों ! मै इस खुजली पुराण के बीच में थाने से 'लाइव टेलीकास्ट' के लिए क्षमा चाहता हूँ. लेकिन उस दिन 'हाथ की खुजली' छुडाने का एक नया मतलब भी पता ! लगा
खैर मै जगह - जगह होने वाली खुजली के बारे में बता रहा था। कभी कभी तोसरेआम ऐसी जगह खुजली उठती है कि आदमी अश्लील हरकतें करता हुआ प्रतीत होता है. औरतें 'बेशर्म' होने की गाली देने लगती हैं, अफसर कमरे से बाहर तक भगा देते हैं, बीबी शक की नज़र से देखने लग जाती है. एक बार मेरे एक सहकर्मी ऐसी ही खुजली से परेशान थे, इसलिए जब वे अपने अफसर के चैंबर में जाते थे तो अपने दोनों हाथ पीछे करके अँगुलियों को आपस में जकड लेते थे. अफसर बहुत कड़क था इसलिए उन्होंने कभी रिस्क नही लिया. हाँ ! चैंबर से बाहर निकल कर पहले वे दस मिनट अपनी खाज मिटा लेते थे तभीआगे बढ़ते थे.
एक 'कोढ़ में खाज' होती है . अगर किसी के प्रोमोसन के अगले ही दिन एक करोड़ की लाटरी लग जाय तो उसके पड़ोसी की मनोदशा 'कोढ़ में खाज' जैसी ही होती है. सुनते हैं कोई - कोई 'खाज' कोढ़ में भी बदल जाता है. भाड़ में जाए वो.
कई "खुजैले" कुत्ते भी होते हैं, हमेशा अपनी ही पूछ की जड़ नोचने के चक्कर में चरखी की तरह नाचते हुए।लेकिन खुजली के सम्राट का खिताब तो 'अपुन के पूर्वज' बन्दर को ही मिला हुआ है. मुझे कई बार शक होता है कि खुजली का सम्बन्ध कहीं "अल्लाउद्दीन खिलजी" के साथ तो नही. फिलहाल इतिहासकार ही पता लगायें तो बेहतर होगा.
अब मै अपनी खुजली पर वापस लौटता हूँ. पीठ की खुजली कमबख्त बहुत बुरी चीज है . कितना भी स्वाभिमानी आदमी हो उसे बेशर्म बना देती है. उसे या तो येढा , मेढा , टेढा होना पड़ता है या दूसरे से मदद लेनी पड़ जाती है . वैसे खुजली के मामले में पत्नी या प्रेमिका की मदद कभी नही लेना चाहिए, कई बार यह बेहद "आपत्तिजनक" और "गंभीर" अंजाम तक पहुँच जाता है.
बहर हाल कोई मददगार अगर मिल जाता तो उससे मै अपनी पीठ खुजलवा लेता. अगर कोई पीठ की ही खुजली वाला बन्दा मिल जाए तो क्या कहने. वो मेरी पीठ खुजाता और मै उसकी पीठ. किसी पे कोई एहसान नही. सारा उधार तुंरत वापस. भाई कोई है, जो मेरी पीठ खुजा देगा ?
विनोद श्रीवास्तव


8 January 2009

एक सुना सुना सा गीत

मेरे हुज़ूर मुझसे भी नजर मिलाइए,
कुछ तो बात, अपने भी दिल की सुनाइये,

मेरे
हुज़ूर मुझसे भी नजर मिलाइए।

शर्म-ओ-हया के जुल्म की तो हद ही हो गई,
मुखड़े से अब नकाब की परतें हटाइए.

मेरे हुज़ूर..........

मैंने किया है प्यार, आपसे बे-इन्तहां,
फ़िर क्यूँ न जिद करुँ, जरा ये तो बताइए.

मेरे हुज़ूर..........

थोड़ा सा चाँद, देखिये नजर में आ गया,
पूनम का चाँद भी जरा जल्दी दिखाइए.

मेरे हुज़ूर..........

तिरछी नज़र तेरी, जिगर को तार कर गई,
अब तो इलाज़ दर्दे-दिल का करके जाइए.

मेरे हुज़ूर..........

जन्नत है इस जहाँ में, यकीन हो गया,
सीने के पास, थोड़ा और पास आइये.

मेरे हुज़ूर..........

जीना है कई उम्र, मुझे यूँ ही तेरे संग,
आबे-हयात एक घूँट आज चाहिए.

मेरे हुज़ूर मुझसे भी नजर मिलाइए.

विनोद श्रीवास्तव




5 January 2009

सोन मछरी

नेपाल के तराई इलाके में एक लोक कथा " सोन मछरी " प्रचलित है और उस पर कई लोक गीत भी गाये जाते हैं. श्री हरिवंश राय बच्चन जी ने भी उसी कथा पर आधारित एक कविता लिखी है. उस कथा का सारांश कुछ इस तरह से है.
सोन नदी के किनारे एक गाँव में मछुआरे का एक परिवार बहुत प्रेम से रहता था . मछुआरा रोज मछली पकड़ने जाता था और ढेर सारी मछलियाँ बेच कर खूब पैसे कमाता था. मछुआरे और उसकी पत्नी का जीवन बड़े आनंद में कट रहा था.
एक रात पत्नी ने प्रश्न किया कि तुम इतने बड़े मछुआरे हो तो मेरे लिए "सोन मछरी" पकड़ कर क्यों नहीं लाते ?
मछुआरा चौंका ! अरे तुम्हे 'सोन मछरी' की क्या जरूरत है ? और 'सोन मछरी' कोई सच्ची थोड़े ही होती है. वो तो किस्से कहानियो की बातें है.
लेकिन मछुआरिन अड़ गयी कि उसे 'सोन मछरी' चाहिए ही चाहिए . उसने खाना पीना छोड़ दिया.
स्त्री हठ के आगे मछुआरे को झुकना पड़ा और वह कई दिन का खाने पीने का सामान ले कर 'सोन मछरी' पकड़ने चल दिया.
मछुआरा अगले कई महीनो तक घर नहीं लौटा और उसकी पत्नी उसकी राह देखती रही.
एक दिन गाँव में शोर हुआ कि मछुआरा लौट आया . पत्नी नदी तट की ओर दौडी. उसने देखा कि मछुआरे के साथ एक बहुत सुंदर युवती भी है.
उसने पूछा कि यह कौन है?
मछुआरे ने जबाब दिया " यही तो सोन मछरी है. इसे बहुत दूर से पकड के लाया हूँ और अब यह अपने साथ ही रहेगी.
मछुआरिन को सारा माज़रा समझ में आ गया लेकिन उसके पास अब पछताने के शिवा कोई चारा नहीं था.
********************
कहानी का निष्कर्ष बहुत साधारण है लेकिन क्या हममे से कोई उस मछुआरिन से अलग है ? वह तो भोली औरअनपढ़ थी और "सोन मछरी" के लालच में सौतन बुला बैठी लेकिन क्या पढ़े लिखे और विद्वान लोग भी "सोनमछरी" के लालच से अछूते हैं ? क्या महलों की रानी सीता भी "स्वर्ण मृग" के लोभ में नहीं गई थी.
हम सब अपने सुखी वर्तमान से संतुष्ट नही रह पाते और, ज्यादा -और- ज्यादा, के जाल में उलझते जाते हैं. इसजाल की फाँस अधिकतर मामलों में त्रादश ही होती है. लेकिन लगता है कि इसमे फँसना ही मानव की नियति है.

वजह

उदास हो के ना इस शाम को उदास करो
कोई तो मुस्कुराने की वजह तलाश करो


संवेदनशील कवि मित्र विजय कुमार स्वर्णकार जी से साभार

बेटा

मेरे गाँव के चोकट बाबा जो वहां के पोस्टमैन भी थे, शाम को अक्सर मेरे घर जाया करते थेगाँव के और भी बड़े बुजुर्गों की जमघट लगती थीवहीं पर टीमल यादव की भैंस के खेत चर लेने से लेकर लेबनान की समस्या तक डिस्कस होती थीहम बच्चों को उन बातों में बड़ा मजा आता था और जानकारियां (?) भी बढ़ती थीलेकिन चोकट बाबा की बात और थीवे रोज कुछ नई चीज सुनाते थे जो मजेदार के साथ साथ कई बार शिक्षाप्रद भी होती थीउनके सुनाये एक प्रसंग का जिक्र यहाँ सामयिक हैप्रसंग का भोजपुरी में ही प्रस्तुतीकरण उसके मर्म तक पहुचना सुगम बनाता है
दृश्य : एक पिता अपने एक - डेढ़ साल के बच्चे को गोद में खिला रहा है और उसका बच्चा एक कौए को देख कर पूछता है:
"
दादा का है ?
बेटा कौवा है
आं ?
बेटा कौवा है
आं ?
कौवा है
आं ?
कौवा है बेटा
.....
.............
......"
दृश्य : करीब तीस पैतीस साल बाद : बूढा पिता बाहर ओसारे में पुआल पर गुदडी ओढे सिकुडा हुआ हैतभी बेटे के ससुराल से कुछ मेहमान आते हैं और सीधे घर के अन्दर प्रवेश कर जाते हैंपिता मेहमान के बारे में स्वभावगत जिज्ञासा वस बेटे से पूछता है :
"
बेटा के रहल हवे ? ( बेटा कौन था?)
केहू नाइ । ( कोई नही)
नाही ! केहू अन्दर गइल हवे। ( नही, कोई अंदर गया है)
का बकबक बकबक ले रहलअपने काम से काम रख "
और पिता चुपचाप अपनी गुदडी में और सिकुड़ लेता है
इस कहानी का मर्म समझाने की आवश्यकता नही है क्योंकि लगभग हर घर की यही कहानी है। इस संवेदना हीन समाज में बेटे से इससे ज्यादा 'रहम' की उम्मीद नही की जा सकती है। यह विडम्बना है कि सारी जवानी बेटों को जवान करने में लुटा देने के बाद जब ख़ुद की आँखे, शरीर, हड्डियाँ और दिमाग साथ छोड़ने लगते हैं तभी अपने ही शरीर का अंश बेटा भी मुंह फेर लेता हैउस वक्त जब परिवार के देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तभी कोई आँख उठा कर देखने वाला नही होता हैएक बाप तीन - तीन चार - चार बच्चों को पचीस सालों तक पाल पोस कर बड़ा करता है लेकिन तीन - तीन चार - चार बच्चे मिल कर एक माँ बाप को कुछ साल नही पाल सकते।

4 January 2009

कहीं वह मृत्यु तो नही?

क्या हम सब किसी (कल्पित) चरम दिन की प्रतीक्षा नही कर रहे हैं ? बचपन में बड़े होने की, बड़े होने पर और बड़ेहोने की , अच्छे कैरियर में स्थापित होने की , फिर जीवन साथी मिलने की, कभी सुंदर घर बन जाने की, आदि आदि ...प्रतीक्षा। और पुनः यही सब अपने बच्चों के लिए। व्यक्ति के पुरुषार्थ, क्षमता, अवसर और परिस्थिति के अनुसारउन्हें मिलती भी जाती हैं। लेकिन हर इच्छा की प्राप्ति पर पुनः अतृप्ति ? फिर कुछ खालीपन, फिर किसी अन्य सुखकी प्रतीक्षा ! वह कौन सी कमी है जो जीवन पर्यंत पूरी नही हो पाती। हम किस चरम आनंद की प्रतीक्षा कर रहे हैं? कहीं वह ईश्वर से साक्षात्कार तो नही ? कहीं वह मृत्यु ही तो नही?

3 January 2009

नरभक्षी गिद्ध

गिद्धों की अखिल भारतीय वार्षिक सम्मलेन में एक बार फिर सर्व सम्मत से निर्णय लिया गया : इस वर्ष भी नेताओं की लाशों को कोई गिद्ध चोंच नही लगायेगा।
कहीं से कोई विरोध नहीं, लगभग पूरी एकता, और
प्रस्ताव पारित ! भूखों मर जायेंगे, हलवा-पूरी खा के जिन्दा रह लेंगे लेकिन नेता भक्षण नही करेंगे । जिन्दा मानुष नोच कर खाने वाले तो अपनी बिरादरी के ही हैं, बल्कि हमसे भी नीच जाति के हैं, भला उन्हें हम कैसे खा सकते हैं।
एक गिद्ध खड़ा हो कर बोला, नेता खाने को तो वैसे भी नही मिलता, कमबख्त टाइट सिक्यूरिटी में रहते हैं, मरते भी कम हैं । बुजुर्गों ने उसे घूर कर डपटा, ऐसे कहीं बोलते हैं नेताओं के बारे में? बेटा ! नेता हैं इस देश में तो खाने को भी मिल रहा है, नही तो अब तक फल-फूल, दाल, रोटी, सब्जी या मेवा- मिठाई खा के जिन्दा रहना पड़ता । नौजवान को अपनी गलती का जैसे बोध हुआ और अपने इलाके के नेताजी का श्रद्धा पूर्वक स्मरण करते हुए बैठ लिया।
एक खोजी गिद्ध पीछे से बोल उठा, ऐसे तो हम पुलिस भी नही खा सकते । वे नेताओं से कम नोच रहे हैं क्या ? अभी हाल
ही में एक नेता ने पुलिस के साथ मिल कर एक इंजिनियर का शिकार किया है. सबकी चोंचें उसकी ओर आश्चर्य से मुडी। एक पदाधिकारी बोला : भला ए तुमने कौन सी नई रिपोर्टिंग की है ? ऐसे शिकार तो हमेशा से वे करते आ रहे हैं। और पुलिस खाना तो हमने अंग्रेजो के टाइम से ही बंद कर रखा है। हाँ ! लेकिन आपलोग नेता और पुलिस को ग़लत निगाह से न देखें । वे है अपनी ही समाज से, फर्क शिर्फ़ यह है कि वे जिन्दा और मालदार शिकार खोजते हैं और हम मरे जानवरों को साफ करते हैं। खोजी गिद्ध ने खिसिया कर चोंच घुमा ली
सभा के समाप्त होते होते यह निर्णय हुआ कि गिद्ध समाज के अगले सम्मलेन में नेताओं और पुलिस को भी आमंत्रित किया जाएगा
सुनते हैं कि नेताओं और पुलिस में खुशी कि लहर है कि आखिरकार गिद्धों ने उन्हें अपने समाज में जगह दे ही दी
(वीभत्स ब्लॉग के लिए छमा ! क्या करें, नेता और पुलिस के बारे में लिखने पर वीभत्स रस अपने आप टपक लेताहै । )
विनोद श्रीवास्तव